बात सन् 1996 की है. बिहार की मैट्रिक की परीक्षा में रिक्त स्थानों की पूर्ति करने की समस्या में एक प्रश्न आया- ‘लालू प्रसाद यादव गरीबों के ... हैं’. इस रिक्त स्थान को पता नहीं कौन भर सका, कौन नहीं, लेकिन बाद में जो जवाब निकलकर आया वह था ‘मसीहा’. बहुत बाद में जब मैंने मिर्जा़ ग़ालिब को पढ़ा तब समझ में आया कि रिक्त स्थान की पूर्ति का सबसे आसान तरीका यह है कि वहां मसीहा, भगवान, ख़ुदा, आदि इत्यादि लिख दिया जाये. कहीं कुछ न समझ में आये तो- या ख़ुदा!
मसलन, ‘न था कुछ तो ख़ुदा था कुछ न होता तो ख़ुदा होता / डुबोया मुझको होने ने न होता मैं तो क्या होता’! उत्तर प्रदेश और बिहार में पढ़े-लिखे लोग ग़ालिब के इस शेर को अपने निजी तज़ुर्बे से समझते हैं. परीक्षा पत्र के ऊपर ऊं या श्री गणेशाय नम: लिख देते हैं. जवाब न आये तो सौ का नोट नत्थी कर मामला भगवान के नाम पर छोड़ देते हैं. कुछ लोग इन्हीं कामों के लिए 786 का सहारा लेते हैं.
बहरहाल, तर्ज़ ये कि यहां मसीहा कोई भी हो सकता है. ज़रूरी नहीं कि उसके लिए मसीहा हुआ ही जाये. जिसे ख़ुदा नहीं मिलता, जिसको ख़ुदा नहीं पूछता या जिसका ख़ुदा से बैर हो, वह प्रतिक्रिया में ख़ुद को ख़ुदा मान बैठता है. अनुराग कश्यप की सीरीज़ ‘सेक्रेड गेम्स’ के गायतोंडे को याद करिये, जिसे कभी-कभी लगता था कि वह ख़ुद भगवान है. नीत्शे ने सुपरमैन की परिकल्पना की थी. महामानव की. यह महामानव कोई और नहीं, ईश्वर की मौत के बाद की दुनियावी निर्मिति है. कालांतर में नीत्शे के लिखे ने फासिस्टों के लिए प्राणवायु का काम किया.
मनुष्य की ख़ुद को ख़ुदा समझ लेने की यह प्रवृत्ति नैसर्गिक है, लेकिन ज्ञान के कुछ इलाकों में यह नहीं चल सकती. राजनीति, अपराध, समाजकार्य, आध्यात्म आदि में तो यह पचनीय है, दूसरे पेशों में कमोबेश नहीं. डॉक्टर जब दवा की परची बनाता है. तो उस पर सबसे पहले आरएक्स जैसा कुछ लिखता है. यह दवाओं का ग्रीक भगवान जुपिटर यानी अपने यहां वाला बृहस्पति है.
कहने का मतलब ये कि पेशेवर कामों में ख़ुदा नहीं बनना चाहिए. अपने भीतर कुलबुलाते ख़ुदा को जंजीरों में जकड़ कर रखना चाहिए. लोगों के विवेक पर भी चीज़ों को छोड़ देना चाहिए. सबको ऊपर से दिमाग मिला है. सब सोच सकते हैं. सब देख सकते हैं. फिर ज़रूरत क्या है कि ज़माने के ख़ुदा की असलियत को समझाने के लिए उसकी नकल में अपनी छोटी रेहड़ी बगल में लगा ली जाये? एनडीटीवी हिंदी पर रवीश कुमार का प्राइम टाइम पत्रकारिता के इतिहास में अगर याद रखा गया, तो सबसे अच्छे अध्यायों के साथ कल के सबसे बुरे अध्याय के लिए भी याद रखा जायेगा, जिसमें वे महामानव का काउंटर बनकर अवतरित हुए और अपने ही बनाये कैरिकेचर में निरीह हो गए.
हुआ क्या है, छोटे में समझिये. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने फिल्म अभिनेता अक्षय कुमार को एक इंटरव्यू दिया. इंटरव्यू की शुरुआत फलों के राजा आम के जि़क्र से हुई. बीच में तमाम सच-झूठ आये. इस विशुद्ध प्रायोजित बातचीत को पूरे मीडिया ने दिखाया और टीआरपी बटोरी. मुझे इसकी पहली आलोचना बनारस के एक मित्र से फोन पर प्राप्त हुई, जो भाजपा का शाश्वत वोटर है और संघप्रिय भी है. उसने इंटरव्यू देखने की कोशिश की थी, पांच मिनट से ज्यादा नहीं झेल सका और मुझे फोन लगा दिया. फिर देसी घी में पगे शुद्ध बनारसी विशेषणों से साक्षात्कर्ता और साक्षात्कृत दोनों को सम्मानित किया. इसका सामान्यीकरण मैं नहीं करूंगा, लेकिन इसकी प्रतिक्रिया में ‘अराजनीतिक’ होने का विकल्प भी नहीं चुनूंगा, क्योंकि इस नाम की कोई चिड़िया धरती पर तो नहीं मिलती. हमारे जनम से लेकर मरण तक सब कुछ राजनीतिक है.
फिर रवीश कुमार ने मोदी के इंटरव्यू की तर्ज़ पर ‘अराजनीतिक’ प्राइम टाइम देना क्यों चुना? जो आधा घंटा उन्होंने अबौद्धिक तंज, अभिनय और भोंडे मजाक में ज़ाया किया, क्या उस अवधि में वाकई मोदी के साक्षात्कारों का एक गंभीर पोस्टमॉर्टम करना संभव नहीं था? क्या वे वास्तव में यह मान चुके हैं कि यह समाज भोंडे मनोरंजन और छिछले हास्य का तलबगार है? समाज को छोड़िये, मामला एनडीटीवी के व्यूअर्स का है. एनडीटीवी और रवीश के समर्पित दर्शक उनसे क्या चाहते हैं? मोटे तौर पर वे इसलिए उन्हें देखते हैं, क्योंकि सरकार और सत्ता प्रतिष्ठान की एक स्वस्थ आलोचना अन्यत्र कहीं नहीं मिलती. क्या समय के साथ इस आलोचनात्मक दृष्टि में कोई पूर्वग्रह या हठ जुड़ गया है, जो रवीश को कुछ भी करने/कहने का ‘जनादेश’ दे देता है?
मैंने पहले भी लिखा है कि जब रवीश ने ‘गोदी मीडिया’ शब्द गढ़ा और बोलना शुरू किया था, तो वे दरअसल प्रकारांतर से खुद को दूसरे पाले से आइडेंटिफाई कर रहे थे. जब सत्ता खुद विभाजनकारी हो, तो क्या हम विमर्श व विमर्शकारों को ऐसे शब्दों के प्रयोग से विभाजित करके उसकी मदद नहीं कर रहे? यह सत्ता चाहती है कि लोग ‘इनर्ट’ हो जायें, बेहया हो जायें, ‘कोई नृप होय हमें का हानि’ वाली सनातन कहावत को अपने जीवन में उतार लें. हम उसकी आलोचना में उसी की नकल कर बैठते हैं. सत्ता अपने कृत्य को ‘अराजनीतिक’ कह कर एक राजनीतिक काम करती है, तो रवीश भी उसी रात प्रतिक्रिया में बिलकुल वही करते हैं. नीत्शे का सुपरमैन दोनों ओर अवतरित हो आता है.
पक्षधरता पत्रकारिता की बुनियाद है, लेकिन यह जबरन न होना चाहिए, न दिखना चाहिए. आपका पक्ष यदि जनता का पक्ष है तो आप जनता के बीच जाकर पहले उसका पक्ष जानेंगे, तब कोई टिप्पणी करेंगे. दिन में एक इंटरव्यू आता है और शाम को प्राइम टाइम में आधा घंटा विशुद्ध स्वयंभू तरीके से उसकी समीक्षा की जाती है. क्या यही इस संकटग्रस्त वक़्त की मांग है? क्या यही जनता चाहती है? एक बचे-खुचे कायदे के मंच का क्या यह अराजक और बेपरवाह इस्तेमाल नहीं है? कोई आपको चिढ़ाये, आप चिढ़ जायें और आप पलट कर उसे चिढ़ाने लगें- ये कौन सी परिपक्व रीति है?
‘लोगों ने कहा आप कुमार को इंटरव्यू दे दीजिये, वे अक्षय कुमार को ले आये’- ऐसा कह कर रवीश क्या मैसेज देना चाह रहे थे? ‘कुमार’ से उनका आशय क्या था? हो तो ये भी सकता था कि वे बाक़ी चैनलों पर दूसरे ऐंकरों को मोदी के दिये इंटरव्यू की समीक्षा करते और उसे ‘अराजनीतिक’ सिद्ध करते. उन्होंने प्रसून जोशी और अक्षय कुमार को ही चुना, जिनके जि़क्र से कोई खास उद्देश्य नहीं सधता.
बीते दो-चार साल में जिस तरीके से समाचार चैनलों के हिसाब से दर्शकों का बंटवारा किया गया है, कल का एनडीटीवी प्राइम टाइम उसका सीधा परिणाम है. आप एनडीटीवी के किसी समर्पित दर्शक से पूछ कर देखिये, उसकी प्रतिक्रिया सराहना वाली ही होगी. मैंने इस एपिसोड को फेसबुक पर शेयर करने वालों की संक्षिप्त प्रोफाइलिंग की है. उनके घोषित संदेशों में मोदी के ख़िलाफ़ वही नफ़रत दिखती है, जो ज़ी न्यूज़ देखने वाले किसी दर्शक के मन में राहुल गांधी के प्रति हो सकती है. यह बेहद खतरनाक स्थिति है. एक तरफ नरेंद्र मोदी अपनी कॉन्सटिचुएंसी को संतुष्ट कर रहे हैं, दूसरी ओर रवीश कुमार अपने कैचमेंट एरिया में मछली मार रहे हैं. यही काम अर्नब गोस्वामी कर रहे हैं. यही सुधीर चौधरी. हर कोई अपने इलाके का लतीफ़ पठान बना हुआ है. एक बड़ा ख़ुदा है, बाकी छोटे-छोटे ख़ुदा.
नतीजा, हर तरफ हर कुछ खुदा पड़ा है. कहीं कुछ बन नहीं रहा, केवल खुदाई चालू है. प्राइम टाइम में रवीश का सुनाया अक़बर इलाहाबादी का शेर उनके ऊपर और उनकी बिरादरी के दूसरे पाले में बैठे प्रस्तोताओं के ऊपर बिल्कुल फिट बैठता है. काफ़िये का वज़्न सही बैठे, इसके लिए मैंने अंग्रेज़ी के कुछ अक्षर जबरन उसमें डाल दिये हैं:
‘’असर ये तेरे अन्फ़ास-ए-मसीहाई का है ‘कुमार’/आरसीआर से लंगड़ा चला जीके तक पहुंचा’’
इस शेर में बहुत गुंजाइश हैं. आप गोदी में बैठे दर्शक हों या अपने पैरों पर खड़े, इसे अपनी ज़रूरत के हिसाब से बदल सकते हैं. कुमार को चौधरी या गोस्वामी कर सकते हैं, उसी क्रम से जीके यानी ग्रेटर कैलाश को नोएडा या बंबई कर सकते हैं. आरसीआर मने रेस कोर्स रोड तो अपनी जगह रहेगा, उसे आप चाहें तो एलकेएम यानी लोक कल्याण मार्ग भी लिख सकते हैं.
अब रदीफ़ और काफि़ये का वज़्न तो उसे बिगाड़ने वाले को ही संभालना होगा, क्योंकि अक़बर इलाहाबादी के मकबूल शेर का वज़्न तो केवल इकबाल ही संभाल सकते थे, जिन्होंने ‘असरार-ए-ख़ुदी’ के बाद अपने अगले संग्रह का नाम ‘रुमुज़-ए-बेख़ुदी’ रखा. ख़ुदी से बेख़ुदी की ओर बढ़ना ही असल सलाहियत है, बाकी तो जो है सो हइये है.
रवीश के लिए इकबाल के एक शेर से ही अपनी बात ख़त्म करूं तो बेहतर:
‘अंदाज़-ए-बयां गरचे बहोत शोख़ नहीं है / शायद के उतर जाये तेरे दिल में मेरी बात’.
0 Comments
Please do not enter any spam link in the comment box.