बिजली का बल्ब या ट्यूबलाइट फूटते समय उसमें से हल्के धमाके की आवाज क्यों आती है? तथा इन बल्ब में कौन कौनसी गैस होती है और क्यों होती है?

सबसे पहले इसका जवाब दिया गया: क्या कारण हैं कि जब एक बिजली का बल्ब या ट्यूबलाइट फूटते समय उसमें से हल्के धमाके की आवाज आती है?
हम सभी ने बचपन में बिजली के खराब बल्ब और ट्यूबलाइट तोड़ने का काम किया होगा।और उसको तोड़ते समय उसमें से एक हल्के से धमाके की आवाज सुनाई देती थी।यही आवाज सुनना हमें मजेदार लगती थी।
हमने तो अपने बचपन में बल्ब फोड़ने एक नया खेल इजाद किया था।जब कभी हमें फ्यूज बल्ब मिलता था तो उसे हम एक बड़े से पत्थर पर रखते थे। बादमें दोस्तों के साथ मिलकर लगभग पचास मीटर की दूरी से बल्ब को बारी बारी से पत्थर से निशाना लगाकर फोड़ने की कोशिश करते।जो खिलाड़ी बल्ब को सही निशाना लगाकर फोड़ देता , वो विजेता हो जाता।विजेता को इस प्रतियोगिता में ओलंपिक में निशानेबाजी का पदक जीतने का एहसास होता।वो दिन भी कितने रईस थे।
खैर छोड़ो।अब आते है मुख्य विषय पर।
बल्ब या ट्यूबलाइट फूटते समय उसमें से धमाके की आवाज क्यों आती है?
दरअसल आपने पुराने बल्ब को देखा होगा। उन्हें इंकैंडिसेंट बल्ब कहते है। उसमे आंशिक रूप से नाइट्रोजन मिश्रित ऑर्गन गैस होती है। इन बल्ब में नाइट्रोजन 20–30% और आर्गन गैस 70–80% होती है। इसमें वातावरणीय दबाव की तुलना में ०.३% दबाव होता है जो कि बहुत कम है।
 इंकैंडेसेंट बल्ब।
इसके बाद फ्लुरोसेंट बल्ब जिसने सीएफएल जैसे बल्ब आते है इनमें भी आर्गन और नाइट्रोजन गैस के साथ साथ हीलियम, न्यूओन, क्रिप्टॉन जैसी निष्क्रिय गैसे होती है। और इसमें मर्करी बाष्प के रूप में होता है। लेकिन इन गैसों को बहुत ही कम दबाव पर भरा जाता है।
[3] फ्लरोसेंट बल्ब।
इसलिए होता ये है की जब हम इन बल्बो को फोड़ते है तो बाहर के वातावरण की हवा उस कम दबाव वाले स्‍थान को भरने के लिए बहुत तेजी से अन्‍दर प्रवेश करती है । और हवा के इसी तेजी से खाली जगह को भरने की प्रक्रिया में धमाके जैसी आवाज सुनाई देती है।
अब दूसरी बात यानी की इन बल्ब के अंदर गैस क्यों भरी जाती है।
वर्षों पहले बल्ब के अंदर वैक्यूम छोड़ने की प्रथा थी ताकि बल्ब के अंदर 2000 डिग्री सेल्सियस के तापमान में टंगस्टन फिलामेंट को जलने से रोका जा सके। लेकिन इतने उच्च तापमान पर टंगस्टन फिलामेंट पिघलने लगता है। और टंगस्टन फिलामेंट का धीरे-धीरे 'वाष्पीकरण' होता हैं।
अतः इस परिस्थिति से निपटने के लिए एरविन लैंग-मूर नामक एक प्रसिद्ध अमेरिकी रसायनज्ञ ने 1913 में दो तरीकों का आविष्कार किया:
(1) उन्होंने टंगस्टन फिलामेंट के तार को एक पट्टिका में बुनाई करते हुए मोड दिया, जिसे हम कॉयल कहते है।इससे टंगस्टन फिलामेंट को अधिक टिकाऊ बना दिया।
(२) उन्होंने बल्बों में निर्वात छोड़ने की प्रथा की जगह उन्हें नाइट्रोजन या आर्गन से भरना शुरू किया। आर्गन एक अक्रिय या निष्क्रिय गैस है जो किसी भी रासायनिक प्रतिक्रिया को जन्म नहीं देती है । ऑक्सीजन एक क्रियाशील गैस है।जो टंगस्टन के फिलामेंट के साथ क्रिया करेगी और ईसलिए आर्गन और नाइट्रोजन गैस टंगस्टन फिलामेंट के काम को प्रभावित नहीं करेगी। तथा आर्गन गैस का दबाव फिलामेंट के 'वाष्पीकरण' को भी लगभग रोक देता है।[4]
आशा करता हूं कि आपको यह जानकारी अच्छी लगी होगी।

Post a Comment

0 Comments