1958 में चिड़िया (Sparrow) की वजह से चीन में किस तरह की भयानक तबाही हुई थी?

यह सच है की 1958 में चिड़िया की वजह से चीन को भारी तबाही सहनी पड़ी और लगभग ढाई करोड़ लोग मर गए। परंतु इसमें गलती चिड़िया की नहीं थी यह गलती इंसान से हुई थी।
हम अक्सर सोचते हैं कि कीट-पतंगे और सांप भयानक हैं या हमारे आसपास जो पशु-पक्षी हैं ये भला हमारे किस काम आते हैं, ये सब बेकार हैं और इनके जीने मरने से हमें क्या फर्क पड़ता है।
परन्तु भगवान ने कुछ भी फालतू नहीं बनाया है। कुछ भी चीज फालतू नहीं है यह सब हमारे मददगार हैं।
हमारे आसपास हर जीवित जीव प्रकृति में संतुलन बनाए रखने में मदद करता है किसी भी जीव का लुप्त हो जाना कहीं ना कहीं पूरी प्राकृति के संतुलन को बिगाड़ देता है। हमें बाद में जब परिणाम भुगतने पड़ते हैं तो समझ में आता है कि ये जीव हमारे दोस्त भी हैं और हमारे अस्तित्व को बचाए रखने के लिए जरूरी हैं।
बात 1958 की है जब चीन के माओ जेडोंग ने चीन में एक अभियान शुरू करवाया था जिसे four pests campaign का नाम दिया गया था।
जिसमें मच्छर-मक्खी, चूहा और गौरैया को मारने का फरमान जारी किया गया। उनका कहना था कि गौरैया खेतों से सारा अनाज खा जाती है इसलिए इसे भी मारना जरूरी है। मच्छर, मक्खी और चूहे के नुकसान तो सबको ही पता हैं कि मच्छर मलेरिया फैलाते हैं, मक्खियां हैजा फैलाती हैं और चूहे प्लेग फैलाते हैं इससे इनका सफाया इंसानों के हित में था।
चीन में उस समय क्रांतिकारियों ने जनता के बीच में इस अभियान को एक आंदोलन की तरह चलाया। लोग बर्तन व ड्रम बजा बजाकर चिड़ियों को उड़ाते रहते और लोगों की पूरी कोशिश होती कि चिड़ियों को खाना ना मिले और बैठने की जगह ना मिले। इससे गौरैया कब तक उड़ती आखिर थक कर गिर जाती और उसे मार दिया जाता।
इसी प्रकार ढूंढ-ढूंढ कर उनके अंडों को फोड़ दिया गया और इस प्रकार उनकी क्रूरता का शिकार चिड़िया व उसके छोटे-छोटे बच्चों को भी होना पड़ा।
हालत यह थी कि जो शख्स जितनी गौरैया को मारता उसे स्कूल, कॉलेज के आयोजनों में मेडल और इनाम दिए जाते।
गौरैया को यह बात समझ आ गई थी कि अब उनके लिए कोई भी सुरक्षित जगह नहीं है इसलिए एक बार बहुत सारी गौरैया झुंड बनाकर पोलैंड के दूतावास में जा छूपी, परन्तु गौरैया को मारने वाले वहां भी पहुंच गए और उनके सिर पर खून सवार था उन्होंने दूतावास को घेर लिया और इतने ड्रम बजाए कि उड़ते उड़ते थक करके सारी गौरैया गिर कर मर गईं।
अब चीन के लोग खुश थे कि उनका अनाज खाने वाली गौरैया से छुटकारा मिल गया है और अब अनाज सुरक्षित रहेगा। परंतु क्या अनाज सुरक्षित रहा, नहीं बल्कि उल्टा हो गया।
अगले दो साल आते-आते 1960 तक लोगों को समझ आ चुका था कि उनसे कितनी बड़ी गलती हो गई है। गौरैया अनाज नहीं खाती थी, बल्कि कीड़ों को खा जाती थी जो अनाज की पैदावार को खराब करने का काम करते थे।
गौरैया के मर जाने से नतीजा यह हुआ कि धान की पैदावार बढ़ने की बजाय, तेजी से घटने लगी। टिड्डी और दूसरे कीड़ों की तादाद तेजी से बढ़ने लगी और उनकी आबादी पर लगाम लगाना मुश्किल हो गया। फसलें खराब हो गईं और बुरी तरह से अकाल पड़ गया और इस अकाल में ढाई करोड़ लोग मारे गए।
माओ जे़डोंग को अब अपनी भूल समझ आ चुकी थी उसे पता चल चुका था कि प्रकृति से खेलना क्या होता है।
गोरिया वैसे ही लुप्त होती जा रही है क्योंकि वह इलेक्ट्रिक तरंगों को नहीं सहन कर पा रही है। अगर हम उसे पानी और अनाज देंगे तो शायद वह कुछ समय तक और हमारे साथ रहे। नहीं तो उसकी संख्या तेजी से खत्म हो रही है। हालत यह है कि जो अण्डों से 13 दिन में बच्चे निकल आते थे अब उसके अण्डों से बच्चे निकलने में 1 महीने का समय लग रहा है।
उम्मीद है इस घटना से सब सबक लेंगे और गौरैया का ध्यान रखेंगे।
बार बार सबसे अपील है अपने आसपास इनके लिए पानी और भोजन की व्यवस्था रखें ताकि ये गोरैया घरों में चीं चीं कर खुशियां लाती रहे।
यह हमारा फर्ज है कि हम प्रकृति से न खेलें और उसे जीवित रहने का मौका दें।

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