आज जब लोगों के हैंडपंप सूख रहे हैं, सामान्य बोरिंग से पानी के बदले कीचड़ निकल रहा है. तब लोगों को समझ आ रहा है कि थोड़े से लालच के कारण उन्होंने अपने ही तालाबों और नदियों के साथ क्या किया है.
मीठे जल वाली एशिया की सबसे बड़ी गोखुर झील कांवर इन दिनों पूरी तरह सूख चुकी है. मगर यह राष्ट्रीय क्या, स्थानीय मीडिया के लिए भी कोई खबर नहीं है. खबर तो यह भी नहीं है कि पग-पग पोखर वाले मिथिलांचल के इलाके में वाटर लेवल इतना गिर गया है कि लोग गांव-गांव में 320 फीट की डीप बोरिंग करवाने पर मजबूर हैं. कभी इस इलाके में 30-40 फीट पर ही पानी मिल जाता था.
खबर यह भी नहीं है कि लोग ब्रह्ममुहूर्त में ही गैलन लेकर पानी की तलाश में निकल रहे हैं. टैंकर से पानी की सप्लाई शुरू हो गयी है. क्योंकि हमेशा से जल की प्रचुरता का उपभोग करने वाले उत्तर बिहार के लिए जल संकट कोई खबर ही नहीं है. सरकार से लेकर समाज तक के मन में यह धारणा बैठी हुई है कि उत्तर बिहार तो बाढ़ का इलाका है, यहां पानी की कभी दिक्कत नहीं हो सकती. इसी धारणा की वजह से पिछले कुछ दशकों में लोगों ने इस इलाके के ज्यादातर प्राकृतिक जलस्रोतों को नष्ट और तबाह कर दिया और आखिरकार इसका नतीजा इस साल सामने आया, जब उत्तर बिहार भीषण सूखे का सामना करने को मजबूर है.
आज जब लोगों के हैंडपंप सूख रहे हैं, सामान्य बोरिंग से पानी के बदले कीचड़ निकल रहा है. बार-बार टैंकर बुलाना पड़ रहा है. सबमर्सिबल बोरिंग के लिए हजारों रुपये खर्च करने पड़ रहे हैं, तब लोगों को समझ आ रहा है कि थोड़े से लालच के कारण उन्होंने अपने ही तालाबों और नदियों के साथ क्या किया है. किस तरह उन्होंने तालाबों को भरकर मकान बनाये, नदियों को घेरकर उनकी हत्या की और धरती का सीना छलनी कर धड़ल्ले से जितना मन उतना पानी निकाला. इस मामले में सरकार की नीतियों ने भी उनका सहयोग किया. पहले यह प्रचार आया कि कुएं का पानी शुद्ध नहीं होता, इसलिए हैंडपंप का पानी पीयें, फिर सिंचाई के लिए नहरों, तालाबों को छोड़ डीप बोरिंग की प्रणाली को बढ़ावा दिया गया. बिहार सरकार ने तो बोरिंग इस्तेमाल करने वाले किसानों को डीजल सब्सिडी तक दी. फिर नीतीश कुमार से सात निश्चय के तहत गांव-गांव में भूजल के वितरण की प्रणाली शुरू हुई.
कभी बिहार में ढाई लाख से अधिक तालाब हुआ करते थे, मगर पिछले दिनों मिली एक सरकारी जानकारी के मुताबिक राज्य में सिर्फ 93 हजार तालाब बच गये हैं. पग-पग पोखर के लिए मशहूर तालाबों के शहर दरभंगा में 1964 में 213 तालाब हुआ करते थे, 2016 में जब इस रिपोर्टर ने वहां के स्थानीय प्रशासन से बातचीत की तो पता चला कि अब सिर्फ 84 तालाब बच गये हैं. बाद के तीन सालों में कई और तालाब भर कर प्लॉट में बदल दिये गये होंगे. दरभंगा जिले की बात की जाये तो एक वक्त वहां 65 सौ से अधिक तालाब थे, अगर आज इनमें से आधे भी बचे होंगे तो यह किस्मत की बात होगी.
बेगूसराय का कांवर झील जो पक्षी अभयारण्य भी है, बिहार की एक महत्वपूर्ण धरोहर है. 15,800 एकड़ में फैले इस झील का परिचय मीठे पानी के एशिया के सबसे बड़े गोखुर झील के रूप में दिया जाता है. स्थानीय लोग कहते हैं कि कभी यह झील दरभंगा के कुशेश्वर स्थान स्थित पक्षी अभयारण्य से मिल जाता था. पिछले कुछ सालों में इसका क्षेत्र सिकुड़ कर 2500 एकड़ तक में सीमित रह गया. शेष इलाके में स्थानीय किसान खेती करने लगे. बाद में जब सरकार ने पूरे इलाके को अभयारण्य के रूप में नोटिफाइ किया तो किसान कहने लगे कि अभी इस झील का दायरा 5500 एकड़ ही है, इसे ही माना जाये. इस मामले को लेकर किसान अदालत में हैं. इस बीच ताजा खबर यह है कि इस साल झील पूरी तरह सूख गयी है, कई लोग कहते हैं कि झील को जानबूझकर सुखा देने की कोशिश चलती रहती है ताकि अधिक से अधिक इलाके में खेती की जा सके. जबकि विशेषज्ञ और मछुआरे कहते हैं कि इस झील को पुनर्जीवित करना बहुत आसान है.
मोतीहारी का मोती झील उस शहर की पहचान है, कहते हैं कि उसी मोती झील के नाम पर मोतीहारी शहर का नाम पड़ा. मगर वह मोती झील भी भीषण अतिक्रमण की शिकार है. 1980 से पहले इस झील का रकबा 487 एकड़ हुआ करता था, अब यह 325 एकड़ के आसपास रह गया है. कई लोगों ने इस झील की जमीन को भरकर कब्जा कर लिया है. 109 लोगों के खिलाफ अतिक्रमण का मुकदमा भी चल रहा है. इस झील की तसवीर देखेंगे तो दंग रह जायेंगे, कैसे एक व्यक्ति ने बीचोबीच मकान बना लिया है और बाउंड्री के जरिये जमीन घेरने की कवायद चल रही है. मुजफ्फरपुर में एक घिरनी पोखर है, जिसका आकार 500 मीटर बताया जाता है, मगर नगर निगम ने खुद 150 साल पुराने उस तालाब को कचरे का डंपिंग यार्ड बना दिया, जिससे उस तालाब की मौत हो गयी. यह उत्तर बिहार के हर शहर की कहानी है.
हमने यह हाल सिर्फ तालाबों और झीलों का ही नहीं किया, पिछले कुछ दशक में इलाके के लगभग तमाम कुएं भर दिये गये. 19वीं शताब्दी तक बिहार से होकर छह हजार के करीब छोटी-बड़ी नदियां बहा करती थीं, बड़ी नदियों में गंगा के अलावा कोसी, गंडक, घाघरा, सोन, कमला, बूढ़ी गंडक, बागमती, महानंदा, कनकई, बलान वगैरह के नाम तो सभी जानते हैं, मगर जो छोटी-छोटी नदियां और धाराएं हुआ करती थीं, उनका अपना अलग महत्व था. जानकार बताते हैं कि अब इनमें से 400 भी जीवित हों तो यह बड़ी बात होगी. इन छोटी नदियों का जो उत्तर भारत की धमनियां थीं, वजूद खत्म होनी की सबसे बड़ी वजह बड़ी नदियों पर बनने वाले तटबंध हैं. इन तटबंधों ने छोटी और सहायक नदियों का बड़ी नदियों से संपर्क ही खत्म कर दिया. पहले जब ये नदियां बड़ी नदियों से जुड़ी रहती थीं तो बारिश के दिनों में जब बड़ी नदियों में अधिक पानी आता तो वे अपना पानी इन छोटी नदियों को बांट देतीं, जिससे बाढ़ का खतरा टल जाता. और जब गर्मी के मौसम में बड़ी नदियों का पानी घटने लगता तो छोटी नदियां अपना पानी बड़ी नदियों को वापस कर देतीं. इससे गर्मी में जलसंकट नहीं होता. बिहार के कई इलाकों में बड़े-बड़े चौर हुआ करते थे, इनका भी यही काम था. मगर हाल के दशकों में सब खत्म हो गया. लिहाजा बारिश के मौसम में हर साल भीषण बाढ़ आती है और गर्मियों में सूखा पड़ने लगता है.
खेती से लेकर मकान तक के लिए जमीन की लालसा हाल के दशकों में बहुत तेजी से बढ़ी है और इसी लालसा ने हमें नदियों, तालाबों, चौरों और तमाम जलस्रोतों को भर कर उसे जमीन में बदल देने के लिए प्रेरित किया है, और आज हम इसी का खमियाजा भुगत रहे हैं. वरना कभी इस पूरे इलाके में तालाब और पोखर खुदवाने की सुदीर्घ परंपरा रही है और इसे पुण्य का काम माना जाता रहा है. कई इलाकों में तो गांव के किसी योग्य युवक से तालाब और पोखरों के विवाह तक की परंपरा रही है और लोग उस युवक को ताउम्र दामाद जैसा सम्मान देते रहे हैं. मिथिलांचल के कई पुराने इलाकों में लोग आज भी पोखरी के बर वाली परंपरा के बारे में बता देंगे. कभी इसी इलाके में तालाब और कुओं की सफाई के लिए जूड़-शीतल नामक पर्व धूम-धाम से मनाया जाता था. आज तो लगता ही नहीं है कि कभी इस इलाके के लोगों के मन में तालाबों-पोखरों के लिए कोई स्नेह रहा होगा.
मिथिलांचल के इलाके में शहरों में लोग तालाब के किनारे की जमीन को सोना मानते हैं, इसलिए नहीं कि यह जल संसाधन के नजदीक है, बल्कि इसलिए कि यहां एक कट्ठा जमीन खरीद कर भी छह महीने में उसे तीन कट्ठा बनाया जा सकता है. बस पिछवाड़े में कूड़ा फेकते रहना है और तालाब को भर कर जमीन कब्जा लेना है. दरभंगा शहर के तीन बड़े ऐतिहासिक तालाबों हराही, गंगा सागर और दिग्घी के साथ रोज यह घट रहा है. जान का खतरा मोल लेकर अकेले सामाजिक कार्यकर्ता नारायण जी चौधरी इस कुकर्म के खिलाफ आवाज बुलंद करते रहते हैं. वे पिछले कई सालों से सबको कह रहे हैं कि तालाब मत भरो, इससे सिर्फ पर्यावरण को खतरा नहीं, मछलियों की प्रजाति विलुप्त नहीं हो रही, बल्कि एक रोज तुम खुद विलुप्त हो जाओगे. मगर उनकी बात को लोग अनसुना कर देते हैं. आज उनकी बात सच हो रही है.
सच तो यह है कि तमाम दावों के बावजूद बिहार सरकार राज्य के जल निकायों की सुरक्षा को लेकर बहुत संवेदनशील नहीं है. मुजफ्फरपुर में तालाब को डंपिंग जोन बनाने की बात पहले ही कही जा चुकी है. सुपौल में इसी तरह तिलयुगा नदी को डंपिंग जोन बना दिया गया है. खुद पटना शहर में नालंदा मेडिकल कॉलेज के तालाब को भरवा कर पिछले दिनों डायग्नोस्टिक सेंटर बनवा दिया गया. इस डायग्नोस्टिक सेंटर का उद्घाटन खुद मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने किया. काश वे उस वक्त देख पाते कि आज भी उस सेंटर के चारो तरफ तालाब का पानी पसरा है. जब पटना सदर प्रखंड के दफ्तर बनाने की बात चली तो वारिश खां तालाब को सरकार ने खुद ही भरवा दिया. पृथ्वीपुर तालाब को भरकर रेलवे का अस्पताल बनवा लिया गया. अब इस सरकार से तालाबों को अतिक्रमण मुक्त कराने की अपेक्षा कैसे कर सकते हैं.
हालांकि सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट की फटकार के बाद तालाबों और जल निकायों को अतिक्रमण मुक्त कराने की योजना जरूर बनी, 2016 में भू-राजस्व विभाग ने इससे संबंधित आंकड़े जुटाकर हाई कोर्ट को बताया कि फिलहाल बिहार में 1,99,248 जलनिकाय हैं, इनमें 12027 अतिक्रमण का शिकार हैं. पता नहीं अतिक्रमण के ये आंकड़े कितने सही हैं और सरकार ने इन्हें अतिक्रमण मुक्त कराने का क्या उपाय किया.
हालांकि इस मसले पर बात करते हुए नदी,तालाब और पर्यावरण के मसले पर लंबे समय से काम करने वाले रणजीव कहते हैं, यह दोष सिर्फ सरकार का नहीं है. हाल के कुछ वर्षों में हमारा समाज भी कमज़ोर हुआ है. यही समाज कभी इन झीलों और तालाबों का संरक्षण और संवर्धन करता था, मगर अब उसने सबकुछ सरकार के भरोसे छोड़ दिया है. लिहाज़ा इन संसाधनों से व्यक्तिगत लाभ अर्जित कर लेना ही उसकी नीति हो गयी है. वह अब झीलों और तालाबों के संरक्षण की बात नहीं सोचता. वह सिर्फ़ यह सोचता है कि इससे थोड़ा हासिल कर अपना लाभ कमा लिया जाये’’.
कांवर झील के पूरी तरह सूख जाने के सवाल पर इंडियन बर्ड कंजर्वेशन नेटवर्क के बिहार प्रमुख अरविंद मिश्रा कहते हैं, “कांवर झील को सुखाकर खेत में बदलने की साजिश में जितनी भूमिका इलाके के बड़े सामंती किसानों की है, उससे कम सरकार की नहीं है. सरकार ने ख़ुद बिहार के दो बड़े पक्षी अभ्यारण्य कांवर और कुशेश्वरस्थान का क्षेत्रफल कम करने का सुझाव दिया है. कहा जा रहा है कि जहां तक अभी पानी है उसे ही झील मान लिया जाये, मगर सच तो यह है कि झील में पानी न हो ऐसी स्थिति बड़े किसानों के हित में जानबूझ कर पैदा की जाती है. आज भी अगर बूढ़ी गंडक के बसही बांध से नगड़ी-गोड़ियाड़ी नहर को जोड़ दिया जाये और उस नहर को रिचार्ज कर दिया जाये तो कांवर में कभी पानी की कमी नहीं होगी. ऐसा प्रयोग भरतपुर में सफलतापूर्वक किया जा चुका है. सवाल है कि क्या सरकार सचमुच कांवर को बचाने की मंशा रखती है? कहना मुश्किल है!”
सवाल समाज के भी चेतने का है और सरकार के भी सतर्क होने का. जहां एक तरफ समाज को समझना होगा कि जल संसाधन सिर्फ सरकारी या सावर्जनिक संपत्ती नहीं है जो खत्म भी हो गये तो उनका क्या, वे उनके जीवन पर बहुत गहरा असर डालेंगे. वहीं सरकार को भी सोचना होगा कि नल जल योजना या डीजल सब्सिडी जैसी योजना कहीं भूमिगत जल के दोहन को बढ़ावा तो नहीं दे रही. साथ ही व्यापार के लिए गली-गली में खुल रही आरओ वाटर प्लांट और बाइक और कार की सफाई के केंद्र पर भी नियंत्रण लगाने की जरूरत होगी. मतलब यह कि अब चेतना होगा, देर तो हो ही गयी है.
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