पटना में एक सड़क है दानापुर-खगौल रोड नाम से. शताब्दी स्मारक पार्क के पास से लगी इस सड़क से एक और सड़क शुरू होती है, दानापुर-पाटलिपुत्र रोड. इसी के चलते इस इलाके का नाम सगुण मोड़ पड़ गया है. सड़कों पर आने वाले मोड़ अप्रत्याशित होने का अंदेशा लेकर आते हैं. भारत में भदेस राजनीति के रॉकस्टार लालू प्रसाद यादव के साथ यही हुआ है. उनका राजनैतिक करियर सगुण मोड़ पर आकर रुक गया है. यहां से आगे कुछ तय नहीं.
सगुण मोड़ इलाके में ही वो ज़मीन है जिस पर बिहार का सबसे बड़ा मॉल बन रहा है. 9 जून को लालू प्रसाद यादव ने मान लिया कि ये ज़मीन उन्हीं की है. इस ज़मीन को लेकर कहा जा रहा है कि ये ज़मीन लालू द्वारा इकट्ठा की गई बेनामी संपत्ति का एक नमूना है. पिछले दिनों से लालू लगातार केंद्रीय एजेंसियों के राडार पर बने हुए हैं. इल्ज़ाम है कि एक गरीब चरवाहे के तौर पर शुरुआत करने वाले लालू प्रसाद यादव और उनके परिवार के पास बड़े पैमाने पर बेनामी संपत्ति इकट्ठा है.
इस मामले को लगातार उठाते रहे सुशील मोदी कह रहे हैं कि लालू प्रसाद यादव के गरीबी से उठकर 500 करोड़ की प्रॉपर्टी के मालिक बनने तक की कहानी में इतना मसाला है कि उस पर फिल्म बन सकती है. आज हम इस कहानी की स्क्रिप्ट आपसे साझा करेंगे.
सीन 1- हीरो की पैदाइश
कहानी की शुरुआत होती है बिहार के गोपालगंज में पड़ने वाले फुलवारिया गांव से. यहां रहकर दूध बेचने वाले कुंदन राय के यहां आज़ादी के अगले साल जून महीने की 11 तारीख को दूसरे बेटे ने जन्म लिया – लालू प्रसाद यादव. बचपन में लालू ने अपनी मां मरिछिया देवी के साथ घर-घर जाकर दूध बांटा. गांव में ज़्यादा कुछ था नहीं, तो 1966 में पढ़ने शहर गए, अपने बड़े भैया के पास.
भैया पटना के बिहार वेटरनरी कॉलेज में चपरासी की नौकरी करते थे. कॉलेज के ही सर्वेंट क्वॉर्टर में रहते थे. यहीं से लालू 10 A नंबर की बस पकड़कर बीए की पढ़ाई करने बिहार नेशनल कॉलेज (बीएन कॉलेज) जाते थे.
सीन 2- हीरो बनने की शुरुआत
बीएन कॉलेज से लालू ने छात्र राजनीति में कदम रखा. मंच पर चढ़कर भाषण देने लगे. मंच उनके लिए नया नहीं था. बचपन में लालू ने मंच पर ‘नटुआ’ बनकर खूब धमाल मचाया था. नटुआ माने वो लड़का जो लड़की के कपड़े पहनकर नाचता-गाता है. तो लालू को लोगों से बात करने और मोहने का तरीका आता था. और लोगों में पैठ बनाने के लिए उनकी यही पूंजी उनके सबसे ज़्यादा काम आई. छात्र उन्हें सुनना पसंद करते थे. अगले साल ही लालू पटना यूनिवर्सिटी की स्टुडेंट यूनियन के जनरल सेक्रेटरी बन गए.
1970 में लालू का ग्रेजुएशन पूरा हुआ लेकिन लालू स्टुडेंट यूनियन के अध्यक्ष पद का चुनाव हार गए. एक फॉलबैक प्लान हमेशा लेकर चलने वाले लालू ने व्यावहारिक फैसला लिया. भैया के दफ्तर में ही (बिहार वेटरनरी कॉलेज) में डेली वेज बेसिस पर चपरासी की नौकरी कर ली.
तीन साल बाद लालू ने दोबारा पढ़ाई का रुख किया. पटना यूनिवर्सिटी में कानून की पढ़ाई के लिए दाखिला ले लिया. बतौर यूनिवर्सिटी के छात्र वो अब दोबारा छात्रसंघ का चुनाव लड़ सकते थे. 1973 में लालू प्रसाद यादव पटना यूनिवर्सिटी की स्टुडेंट यूनियन के प्रेसिडेंट बन गए. लालू बिल्कुल सही समय पर छात्र राजनीति में वापस आए थे. अगले ही साल जयप्रकाश नारायण ने संपूर्ण क्रांति आंदोलन की घोषणा कर दी.
सीन 3- धांसू ड्रामा
लालू इस आंदोलन में शामिल हो गए. छात्र राजनीति में पकड़ रखने वाले लालू को जेपी की पसंद बनने में ज़्यादा वक्त नहीं लगा. और इसी के चलते वो आपातकाल की घोषणा के बाद पुलिस के राडार पर आ गए. अंडरग्राउंड हुए तो पुलिस उन्हें खोजते हुए उनके ससुराल तक जाने लगी.
एक बार जब लालू को पुलिस पकड़ने पहुंची तो लालू पुलिस जीप पर चढ़ गए. अपना कुर्ता फाड़ कर ज़ोर-ज़ोर से चीखने लगे. उनके उघड़े बदन पर पुलिस के डंडों के निशान बने हुए थे. देखने वालों के दिमाग में ये दृश्य हमेशा के लिए छप गया.
तो जब आपातकाल के बाद 1977 में लोकसभा चुनाव हुआ, लालू को छपरा से टिकट मिला. कांग्रेस के खिलाफ माहौल बना हुआ था और लालू जीत गए. 29 साल की उम्र में संसद पहुंचने वाले लालू उस वक्त तक भारत के सबसे युवा सांसद थे. पार्टी के अंदर भी उनका कद बढ़ता रहा. जेपी ने लालू को स्टुडेंट्स एक्शन कमिटी का मेंबर बना दिया. इसी कमिटी को बिहार विधानसभा चुनाव के लिए टिकट तय करने थे. बड़े-बड़े नेता टिकट के लिए पटना वेटरनरी कॉलेज के सर्वेंट क्वॉर्टर के बाहर लाइन लगाने लगे.
क्रमशः लालू प्रसाद यादव, शरद यादव और रामविलास पासवान (फोटोःट्विटर)
सीन 4- एक फाइट में सबको चित किया
1980 में हुए चुनाव में लालू की सांसदी चली गई. तो उन्होंने इसी साल हुए विधानसभा चुनावों में सोनपुर के लिए लोक दल के टिकट पर विधायकी का पर्चा भर दिया और जीत गए. 1985 में लालू ने फिर विधानसभा का चुनाव जीता. फरवरी 1988 में कर्पूरी ठाकुर का अचानक देहांत हो गया और विपक्ष का नेता लालू प्रसाद यादव को बना दिया गया. 1990 के चुनाव में जनता दल ने वापसी की और सीपीआई के साथ सरकार बनाने लायक सीटें जुटा लीं. तब सवाल खड़ा हुआ कि सीएम किसे बनाया जाए.
केंद्र में जनता दल की सरकार चला रहे प्रधानमंत्री वीपी सिंह का वज़न बिहार के सीएम रह चुके राम सुंदर दास के पीछे था. लेकिन वीपी की सरकार में डिप्टी पीएम थे खांटी देसी नेता देवी लाल. उनका ज़ोर था कि देसज छवि वाले लालू प्रसाद यादव को सीएम बनाया जाए. लेकिन एक दिक्कत थी. लालू चार महीने पहले सांसदी का चुनाव लड़कर दिल्ली गए थे. उन्होंने विधानसभा चुनाव लड़ा भी नहीं था. लेकिन विधायक दल की मीटिंग के पहले लालू ने वो जादू चलाया कि मीटिंग के ऐन दिन चंद्रशेखर की ओर से एक और कैंडिडेट ने सीएम पद पर दावा ठोंक दिया – रघुनाथ झा.
विधायकों में वोटिंग हुई तो सवर्णों के वोट झा को मिले, रामसुंदर को हरिजनों के वोट मिले और लालू को पिछड़ी जाति के विधायकों के. वोटों के इस बंटवारे से लालू को विधायक दल का नेता चुन लिया गया. अजीत सिंह के इशारे पर राज्यपाल लालू को शपथ दिलाने से बचने के लिए दिल्ली भाग गए. लेकिन लालू शपथ लेकर रहे.
सीन 5- लालू का ‘नायक’ मोमेंट
ये जनता पार्टी की पहली सरकार नहीं थी. लेकिन इसका मुख्यमंत्री नया था. अब तक बिहार में सत्ता ज़्यादातर ब्राह्मण, राजपूत और भूमिहार समाज के पास रही थी. लालू ने अपने पहले पांच साल के राज में तय कर दिया कि बिहार में आइंदा कोई सरकार ओबीसी (और मुसलमान भी) की मर्ज़ी के बिना नहीं बनेगी. लालू कहते थे,
मैंने ‘स्वर्ग’ भले न दिया हो, लोगों को स्वर ज़रूर दिया है.
शुरुआती दिनों में लालू के काम करने का तरीका वो था कि अनिल कपूर की ‘नायक’ की स्क्रिप्ट फीकी लगे. लालू मुख्यमंत्री आवास नहीं गए. सीएम लालू प्रसाद यादव की पत्नी राबड़ी देवी की किसी आम गृहिणी के तरह पोछा लगाते फोटो अखबार में छपीं. लालू सर्वेंट क्वॉर्टर बुलाकर वरिष्ठ आईएएस अधिकारियों को घुट्टी पिलाते, शराब के ठेकों पर खुद छापा मारकर सरेआम उनके लाइसेंस कैंसिल करते. लोगों को लगा कि वो एक सपना जी रहे हैं.
लालकृष्ण आडवाणी एक तूफान की तरह अपना रथ लेकर पूरा देश घूमे थे. लेकिन लालू ने उन्हें बिहार में रोक दिया. आडवाणी को लालू ने गिरफ्तार करवाया. इससे लालू एक सेक्युलर चेहरे के रूप में स्थापित हो गए.
सीन 6- कॉन्फ्लिक्ट
लालू के पहले कार्यकाल की सारी उपलब्धियां कहीं गुम होने लगीं जब लालू के दूसरे कार्यकाल के दौरान बिहार में ‘जंगलराज’ की शुरुआत हुई. और इसके लिए सीधा दोष लालू को दिया जाने लगा. कहा जाता था कि फिरौती के केस पटना के 1, अणे मार्ग पर सेटल होते थे. ये बिहार के मुख्यमंत्री का आधिकारिक पता है (लालू आखिर यहां रहने लगे थे). कभी चाटुकारों से दूर रहने वाले लालू प्रसाद यादव ने ब्रह्मदेव आनंद पासवान को राज्यसभा भेज दिया. ब्रह्मदेव की अकेली उपलब्धि ये थी कि उन्होंने लालू चालीसा लिखी थी. लालू के परिवार को उनके मुख्यमंत्री होने का ‘फायदा’ मिलने की बातें होने लगीं.
लालू ने जो छवि गढ़ी थी वो पूरी तरह सच नहीं थी. एक विधायक के तौर पर उन्होंने ऐसे सभी काम किए जो बिहार के विधायकों के लिए सामान्य माने जाते थे मसलन ट्रांसफर वगैरह. इतने को लोग भ्रष्टाचार कहना तब तक बंद कर चुके थे. लेकिन 1996 की जनवरी में पश्चिम सिंहभूम में एनिमल हसबैंडरी विभाग के दफ्तर पर एक रेड पड़ी. इसमें जब्त हुए दस्तावेज़ सार्वजनिक हो गए. भूसे के बदले बिहार सरकार के खज़ाने से अनाप-शनाप बिल पास करवाए जा रहे थे. इसे चारा घोटाला कहा गया. इल्ज़ाम लगा जगन्नाथ मिश्र और लालू प्रसाद यादव पर.
राबड़ी देवी सीएम बनने तक एक सामान्य गृहिणी थीं
शोर मचा तो सीबीआई लालू की गिरफ्तारी के लिए वॉरेंट ले आई. मजबूरी में 1997 की जुलाई में लालू को सीएम पद से इस्तीफा देना पड़ा. छात्र आंदोलन के दौरान कई दफे ठसक से जेल जा चुके लालू पहली बार एक आरोपी के तौर पर बेउर जेल गए. लेकिन जेल जाने भर से लालू का तिलिस्म खत्म होने वाला नहीं था. लालू ने एक बार फिर सबको चौंका दिया. अपनी जगह सीएम बनाया गया राबड़ी देवी को. राबड़ी देवी को इससे पहले कभी सार्वजनिक जीवन में नहीं देखा गया था. लालू ने जेल से बिहार सरकार चलाई.
इसी साल लालू ने जनता दल तोड़कर अपनी अलग पार्टी राष्ट्रीय जनता दल बनाई.
चारा घोटाला में लालू बुरी तरह फंस गए थे. बावजूद इसके आरजेडी अगला विधानसभा चुनाव जीती. मुख्यमंत्री राबड़ी ही रहीं. ये लालू की मज़बूती की निशानी थी लेकिन बिहार के लोग अब जंगलराज से तंग आने लगे थे. पत्रकार अपनी रपटों में बिहार को हिंदुस्तान का गटर कहने लगे. लालू का जादू बिहार से उतरने लगा था. चर्चा यही थी कि लालू चौथी बार बिहार नहीं जीतेंगे. हुआ भी ऐसा ही. 2005 के विधानसभा चुनाव में नतीजे किसी के पक्ष में नहीं गए. सीटें लालू की आरजेडी, नीतीश की जदयू और रामविलास पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी में बंट गईं. लालू के पास पासवान के साथ सरकार बनाने का मौका था. लेकिन पासवान अड़ गए कि मुख्यमंत्री कोई मुस्लिम चेहरा होगा (माने लालू नहीं). लालू ने समझौता नहीं किया.
चुनाव दोबारा हुए. नीतीश ने भाजपा के साथ मिलकर चुनाव लड़ा और जीत गए. लालू की गलती ने उन्हें अगले 10 साल के लिए सत्ता से दूर कर दिया.
सीन 7- हीरो का स्ट्रगल
2005 में अपना किला ढहने से ऐन पहले तक भी लालू में इतना दम बाकी था कि 2004 में सांसदी का पर्चा छपरा और मधेपुरा से भरकर भाजपा के राजीव प्रताप रूडी और जदयू के शरद यादव को हरा दें. लालू के पास कुल 22 विधायक थे और इनके बल पर वो यूपीए में रेलमंत्री का मलाईदार पद पा गए.
और रेलमंत्री के तौर पर लालू ने गज़ब का इमेज मेकओवर किया. भारतीय रेल की जंग खाई हुई मशीन जैसे तेल पाकर रवां हो गईं और सरपट चलने लगीं. मेहनत रही जिसकी भी हो, क्रेडिट हमेशा लालू को मिला. देसी भाषा में बात करने वाले का भौकाल किसी फर्राटेदार अंग्रेज़ी बोलने वाले मल्टीनेशनल कंपनी के सीईओ से ज़्यादा हो गया. लेकिन यहां तक आते-आते लालू काफी बदल गए थे. बिहार के सीएम रहते गइया का दूध दुहते हुए पत्रकारों से मिलने वाले लालू अब हाई-फाई ‘नेता’ बन गए थे. रेलमंत्री के तौर पर ट्रेन से जहां जाते, अपने खास सलून में ही जाते.
रेलमंत्री लालू प्रसाद यादव
2005 में लालू ने जिस रफ्तार से साख खोनी शुरू की, उससे 2009 तक उनका असर इतना कम हो गया कि इस साल हुए लोकसभा चुनावों में राजद के सिर्फ दो सांसद दिल्ली पहुंचे. कांग्रेस ने भी लालू में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई. रेलमंत्री रहते हुए लालू सोनिया गांधी और मनमोहन के करीब होते गए थे, लेकिन चारा घोटाले के भूत ने उनका पीछा नहीं छोड़ा. अक्टूबर 2013 में लालू प्रसाद यादव को सीबीआई की विशेष अदालत ने पांच साल की सज़ा सुना दी. 25 लाख का जुर्माना भी लगा दिया. लालू की सांसदी गई और छह साल तक चुनाव लड़ने पर भी बैन लग गया.
सीन 8- हीरो का कमबैक
2015 में बिहार में विधानसभा चुनाव आते तक नीतीश बिहार के पोस्टर बॉय बन चुके थे. भाजपा ने इसे समझने में भूल कर दी और नीतीश से अलग होकर चुनाव लड़ा. नतीजे आए तो भाजपा भी दंग रह गई और नीतीश भी. विधानसभा में सबसे बड़ी पार्टी आरजेडी थी. लालू के पास ये सत्ता में लौटने का मौका था. इस बार उन्होंने 2005 वाली गलती नहीं की और नीतीश को मुख्यमंत्री बन जाने दिया. लालू के बेटे तेजस्वी यादव को डिप्टी सीएम बनाया गया. ये बिहार की राजनीति में लालू का पुनर्जन्म था.
महागठबंधन में साथी – लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार
क्लाइमेक्स
लालू की कहानी का यही एक हिस्सा है जिसके बारे में हम फिलहाल नहीं जानते. क्योंकि अब तक बताए गए दृश्यों के बीच कहीं न कहीं वो मोन्टाज भी लगेगा जिसमें ये नज़र आएगा कि कैसे 77 में सांसदी का चुनाव जीतने के बाद दिल्ली पहुंच कर लालू ने पहली बार गाड़ी खरीदी थी- एर वेस्पा स्कूटर खरीदा था. इसके बाद विधायकी जीते तो सेकंड हैंड जीप ले आए. कुछ और ‘आगे’ बढ़े तो कमीज़ या बंडी की सादगी की जगह महंगे कपड़ों ने ले ली. कभी घर पर लोगों से मिल लेने वाले लालू लोगों की सभा में हेलिकॉप्टर से आने लगे.
इस बीच लगातार उन पर आय से अधिक संपत्ति गांठने का इल्ज़ाम लगता रहा. लालू इनकार करते रहे और साबित भी कुछ नहीं हुआ, लेकिन उनकी और उनके परिवार की ‘बरकत’ किसी से छुपी नहीं है. इस बात में कम ही संशय है कि पटना की जिस प्राइम प्रॉपर्टी को लालू ने अब जाकर स्वीकारा है, वो उनकी ‘तरक्की’ का अकेला नमूना नहीं है. पिछले 2 महीनों से लगातार लालू के परिवार और सहयोगियों के यहां छापे पड़ भी रहे हैं.
केंद्र में एक ऐसी सरकार है जो उन्हें बरबाद करने में कोई कसर नहीं छोड़ने वाली. महागठबंधन में उनके साथी नीतीश उन्हें बचाने में कितनी रुचि लेंगे, कहना मुश्किल है. लालू दिलचस्प राजनेता हैं. आज तक की हर मुसीबत से वो कम से कम नुकसान के साथ बच के निकले हैं. इस बार ऐसा होगा या नहीं कहना मुश्किल है. तो अभी सब अधर में है.
लेकिन इतना तय है, ये फिल्म जब भी बनेगी, हिट होकर रहेगी. दरकार बस क्लाइमेक्स लिखे जाने की है.
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