मुज़फ़्फ़रपुरः बच्चों को बचाने में सिस्टम फेल, अब बारिश से उम्मीद


मुजफ़्फ़रपुर
मुज़फ़्फ़रपुर में दिमाग़ी बुख़ार यानी एक्यूट एनसेफ़लाइटिस सिंड्रोम (एईएस) के कारण बच्चों की मौतों का सिलसिला नहीं रुक रहा.
मंगलवार को श्रीकृष्ण मेडिकल कॉलेज में पूर्वी चंपारण से आई आठ साल की एक बच्ची प्रिती कुमारी की मौत हो गई. इस साल अब तक पूरे बिहार में 154 बच्चों के मौत की पुष्टि हो चुकी है.
तमाम शोध और चिकित्सकीय कोशिशों के बाद अब चिकित्सा अधिकारियों को गर्मी का मौसम बीतने और बारिश के आने का इंतज़ार है. उन्हें उम्मीद है कि गर्मी कम होने के साथ साथ बीमारी का प्रकोप भी कम हो जाएगा.
पूरे राज्य में इस वक़्त भीषण गर्मी पड़ रही है और 38 में से 25 ज़िले सूखे की चपेट में हैं. मुज़फ़्फ़रपुर और आस-पास के इलाक़े जहां दिमाग़ी बीमारी का प्रकोप सबसे ज़्यादा है, वहां पीने के पानी के लिए भी हाहाकार मचा हुआ है.
बिहार के स्वास्थ विभाग के प्रधान सचिव संजय कुमार ने बीबीसी से कहा, "पहली बारिश के बाद से आशाएं जगी थीं कि गर्मी कम होगी और स्थिति में सुधार आएगा. लेकिन एक दिन की बारिश के बाद पिछले चार दिनों से तापमान सामान्य के मुक़ाबले 8 डिग्री सेल्सियस तक ऊपर चढ़ गया है."
श्रीकृष्ण मेडिकल कॉलेज अस्पताल के अधीक्षक डॉ एसके शाही कहते हैं, "जिस तरह दोबारा गर्मी बढ़ी है, बीमारी के बढ़ने का डर सताने लगा है. हमारी उम्मीद बारिश पर टिकी है वरना हालात और बिगड़ सकते हैं."
  • इधर मौसम विभाग का पूर्वानुमान कहता है कि अगले तीन दिनों तक मुज़फ़्फ़पुर और आसपास के इलाक़ों में बारिश की संभावना बहुत कम है. कहीं-कहीं हल्की बारिश हो सकती है.
दिमाग़ी बुख़ार के प्रकोप के बढ़ने का एक और कारण जागरुकता का अभाव माना जा रहा है. इंडियन मेडिकल एसोसिएशन ने अपने अध्ययन की एक रिपोर्ट में कहा है कि 'अगर राज्य में समय से पहले स्वास्थ्य जागरुकता कैंप चलाए गए होते और परिवारों को सही जानकारी दी गई होती, तो बिहार में एक्यूट इंसेफेलाइटिस सिंड्रोम से हुई बच्चों की भयावह मौतों को रोका जा सकता था.'
वैशाली के हरिवंशपुर गांव में सबसे अधिक 11 मौतें हुई हैं, वहां दो बेटों को खोने वाले चतुरी सहनी कहते हैं, "हर साल आंगनबाड़ी सेविकाएं हमारे टोले में आती थीं. दवाइयां, ओआरएस वग़ैरह बांटती थीं. कैंप लगता था. इस बार कोई आंगनबाड़ी सेविका हमारे तरफ़ नहीं आईं. जब हम ख़ुद आंगनबाड़ी जाते तो पता चलता कि सबक़ चुनाव ड्यूटी में हैं."
लेकिन स्वास्थ्य विभाग के प्रधान सचिव संजय का कहना है कि 'वे सरकारी कर्मचारी नहीं हैं, इसलिए आंगनबाड़ी और आशा वर्कर्स को चुनाव ड्यूटी में लगाने का कोई सवाल ही नहीं है.'
जबकि आंगनबाड़ी और आशा वर्कर्स को इस बार के चुनावों में पर्दानशीं महिलाओं को पहचानने का काम दिया गया था. हर बार यह काम महिला शिक्षिकाओं के ज़िम्मे होता था.
बिहार आंगनबाड़ी वर्कर्स यूनियन की एक प्रतिनिधि ने नाम नहीं छापने की शर्त पर बीबीसी को बताया, "चुनावों में ड्यूटी करना अनिवार्य था. नहीं जाने पर स्पष्टीकरण मांगा जाता था. कई गर्भवती महिला वर्कर्स की उनकी मर्ज़ी के ख़िलाफ़ ड्यूटी लगाई गई."
सवाल इस बात पर भी उठ रहे हैं कि सरकार ने पैसा रहते हुए अस्पतालों को दुरुस्त करने का काम नहीं किया.
केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय की ओर से संसद को दी गई जानकारी के मुताबिक़, "साल 2018-19 के दौरान बिहार सरकार को नेशनल हेल्थ मिशन के तहत 2.65 करोड़ रुपए दिए गए थे, जिसमें केवल 75.46 लाख़ रुपए ही ख़र्च हुए. बिहार ने इस योजना के तहत स्वास्थ्य मेले और जागरूकता कैंप लगाने के लिए आवंटित धन का 30 फ़ीसद भी ख़र्च नहीं किया."
वरिष्ठ पत्रकार पुष्यमित्र कहते हैं, "दो-तीन दिन पहले हमलोग मोतिहारी में कैंप लगा रहे थे. एक बच्चे में दिमाग़ी बुख़ार के सारे लक्षण दिख रहे थे. उसे क़रीब के पीएचसी में गया लेकिन वहां बुख़ार मापने के लिए थर्मामीटर तक नहीं था. स्टाफ़ ने हमसे ही थर्मामीटर मांग लिया."
वो कहते हैं, "इसी बात से अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि सरकार और सिस्टम इसे लेकर कितना गंभीर है. अस्पताल में एक थर्मामीटर का नहीं होना और क्या ही कहता है."
विशेषज्ञों का मानना है कि बिहार में इतनी तादाद में बच्चों की मौत के पीछे समय पर इलाज के लिए मुकम्मल इंतज़ाम का न होना सबसे बड़ा कारण है.
अगर सरकारी रिकॉर्ड की ही बात करें तो नीति आयोग की रिपोर्ट में बिहार की स्वास्थ व्यवस्था को फिसड्डी बताया गया है.
यहां 28,392 आबादी पर सिर्फ़ एक डॉक्टर है, यहां महज़ 13 मेडिकल कॉलेज, देशभर के मेडिकल कॉलेजों की सीटों का महज़ तीन फीसदी है.
बिहार में पीएचसी की हालत पहले से ख़राब है, कुल 1,833 पीएचसी में मात्र 2,078 डॉक्टर हैं. क़रीब 75 फीसदी ऐसे पीएचसी हैं जहां डॉक्टरों की समुचित व्यवस्था तक नहीं है.
पुष्यमित्र के अनुसार, "अधिकतर बच्चों की मौत अस्पताल जाने से पहले ही हो गई है. कोई अस्पताल जाते-जाते मर गया, कोई जा भी नहीं पाया. मुज़फ़्फ़रपुर के देहात और आसपास के इलाक़ों में कैंप करते हुए हमें कई ऐसे परिजन मिले जो चार-चार, पांच-पांच अस्पतालों का चक्कर लगा चुके थे. इलाज की सुविधा मुज़फ़्फ़रपुर को छोड़ कर कहीं नहीं है."

दलित, ग़रीब बच्चे चपेट में

इस बीमारी के एक सामाजिक आर्थिक पक्ष भी सामने आया है. दिमाग़ी बुख़ार के अधिकांश पीड़ित बच्चे सामाजिक रूप से पिछड़े ग़रीब आबादी से आते हैं.
हरिवंशपुर में जहां 11 बच्चों की मौत हुई, वे सभी दलितों के बच्चे ही हैं. गांव में अन्य संपन्न जातियों के मुहल्ले में इस बीमारी का नामो निशान नहीं है.
अस्पताल अधीक्षक एसके शाही कहते हैं, "अभी तक के अधिकांश मामलों में यही देखा गया है कि जो ग़रीबों के बच्चे हैं, कुपोषित हैं, जिनके पास स्वास्थ्य सुविधाओं का घोर अभाव है और जहां पानी की समस्या है, वहीं के बच्चे मर रहे हैं. अधिकांश बच्चे शौचालय विहीन हैं. घर विहीन हैं. पीने का साफ़ पानी नहीं है."
सरकारी आंकड़ों के अनुसार, साल 2014 में सबसे अधिक 355 बच्चों की मौत इनसेफ़लाइटिस के कारण हुई, जबकि 2012 में इस बीमारी से 275 बच्चों की मौत हुई थी.
जाहिर है जब तक कुपोषण नहीं ख़त्म होगा, ग़रीबी नहीं हटेगी और और ज़रूरी स्वास्थ्य सुविधाओं की उपलब्धता 24 घंटे तक नहीं होगी मौतों का सिलसिला रुक पाएगा, इसमें संदेह है.

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