क्या अयोध्या मंदिर के नाम पर राजनीति समाप्त हो जाएगी?

लगभग 134 वर्षों से चल रहे क़ानूनी विवाद को तो सर्वोच्च न्यायालय के फ़ैसले ने अंतिम चरण तक पहुंचा दिया, लेकिन क्या इसके साथ-साथ अयोध्या मंदिर के नाम पर हो रही वोट की राजनीति भी समाप्त हो जाएगी?
ये सवाल उठना स्वभाविक है क्योंकि पिछले कई दशकों से भारत की राजनीति को तरह-तरह से तोड़ने मरोड़ने का काम अगर किसी मुद्दे ने सबसे ज़्यादा किया तो वह है अयोध्या मंदिर का मुद्दा.
आज भी जब फ़ैसले के ज़रिए दोनों पक्षों को कुछ ना कुछ मिला है, इसका भी राजनीतिक लाभ लेने में कुछ लोग पीछे हटते नज़र नहीं आ रहे हैं. यदि एक तरफ़ बीजेपी के वरिष्ठ नेता इस बात का श्रेय लेने से पीछे नहीं हट रहे हैं कि उनकी पार्टी के कारण देश में सद्भाव बना हुआ है, तो दूसरी तरफ़ असदुद्दीन ओवैसी जैसे विपक्ष के नेता ये साफ़-साफ़ कहने में नहीं चूक रहे कि कोर्ट द्वारा मस्जिद निर्माण के लिए पांच एकड़ ज़मीन देने के फ़ैसले को वो भीख समान समझते हैं, जिसे वो मुसलमानों को ठुकरा देने के लिए अपील भी करेंगे. शायद इसके ज़रिए वो अपनी राजनीति को हैदराबाद में और चमका सकें.
इसका मतलब राजनीति के अतिरिक्त और क्या है. ओवैसी का बयान तो आग में तेल डालने से कम नहीं है क्योंकि बीजेपी और उनके सहयोगी हिन्दुत्ववादी संगठन तो चाहते होंगे कि कहीं से भड़काऊ बयान आए और उन्हें मौक़ा मिले ईंट का जवाब पत्थर से देने का.
वैसे कहने को तो अयोध्या मसला अब बीजेपी के चुनावी घोषणापत्र में जगह नहीं पा सकेगा लेकिन कौन ये मानने को तैयार होगा कि आने वाले कुछ सालों तक चुनाव में बीजेपी इस बात का फ़ायदा नहीं उठाएगी कि उन्होंने मंदिर निर्माण करवाकर अपना वादा पूरा कर दिया.
कम से कम हाल में होने वाले कुछ प्रदेशों के चुनावों में तो ये बख़ूबी काम देगा. कौन जानता है कि ये दावा कर उत्तर प्रदेश में होने वाले 2022 के चुनाव में भी योगी आदित्यनाथ इस बात का डंका बजाकर वोट हासिल करने में कोई कसर छोड़ेंगे.
हां, ये बात दीगर है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को 2024 में होने वाले अपने अगले चुनाव तक शायद इसे भुनाने की ज़रूरत ना पड़े. लेकिन इसका उपयोग वोट की राजनीति से भी ऊपर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपनी एक अलग पहचान बनाने के लिए वो अवश्य करना चाहेंगे.
और यदि मंदिर के साथ-साथ मस्जिद का निर्माण करवा देने में वो सफल हो गए तब कौन जाने वो नोबेल पीस प्राइज़ के भी दावेदार बन सकते हैं.
आख़िर एक टाइम पर उन्हें 2002 के गुजरात दंगों के परिप्रेक्ष्य में देखा जाता था. तो मंदिर-मस्जिद का निर्माण करवाकर वो इस देश में अपनी एक अलग छाप छोड़ सकते हैं.
अयोध्या
सीजेआई रंजन गोगोई की अगुवाई वाली सुप्रीम कोर्ट की बेंच ने अयोध्या पर फ़ैसला दिया है.
बाजी पूरी तरह उनके ही हाथ में है. अब ये तो समय बताएगा कि अयोध्या मसले के इस बारे में फ़ैसले को वो किस प्रकार से इस्तेमाल करते हैं.
वैसे इतिहास इस बात का गवाह है कि इस मुद्दे ने कितनी राजनीतिक पार्टियों और नेताओं को बनाया और बिगाड़ा है.
राम मंदिर का राजनीतिकरण पहली बार 1986 में हुआ जब फ़ैज़ाबाद के ज़िला जज ने विवादित रामजन्मभूमि-बाबरी मस्जिद में कोर्ट द्वारा लगाया गया ताले को खोल देने का फ़ैसला किया. बीजेपी और विश्व हिन्दू परिषद (वीएचपी) जो कि उसके कुछ साल पहले से ताला खोलने की बात उठा रहे थे, तत्काल इस बात का श्रेय लेने लगे कि ये उनकी जीत है.
इस रेस में बीजेपी को अपने से आगे जाते हुए देखकर कांग्रेस लीडरशिप फ़ौरन मैदान में कूद पड़ी और तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने अयोध्या में राम मंदिर का 'शिलान्यास' करवा डाला.
उन्हें उम्मीद थी कि मंदिर राजनीति की रेस में इसके ज़रिए उनकी पार्टी बीजेपी को पछाड़ देगी. लेकिन जिसे महारत हासिल हो इस खेल में उसके साथ उसी के मैदान में आकर अपनी चाल चलने को समझदारी नहीं कहा जाता है. और वही हुआ, क्योंकि उन्हीं के खेल में बीजेपी को हरवाना मुमकिन नहीं था.
अयोध्या
पूर्व उप-प्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी पर भी बाबरी मस्जिद ढहाए जाने में मुक़दमा है.
इस बीच राजीव गांधी के ख़िलाफ़ विश्वनाथ प्रताप सिंह का बिगुल क्या बजा, कांग्रेस को कुर्सी छोड़नी पड़ी. वी.पी. सिंह ने प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठते ही मंडल कमीशन की सिफ़ारिशों को लागू करके राजनीति को एक नया मोड़ तो दे दिया लेकिन मंडल भी बीजेपी के कमंडल की राजनीति के सामने बहुत दिन तक नहीं टिक सकी.
हालांकि, इसी मंडल की राजनीति के सहारे मुलायम सिंह यादव को सत्ता पाने का मौक़ा मिला. परंतु उन्हें भी कुर्सी से हाथ धोना पड़ा क्योंकि उन्हें बीजेपी समर्थित हिन्दू कारसेवकों पर गोली चलवाने के आदेश उस समय देने पड़े जब कारसेवकों ने 1990 में बाबरी मस्जिद पर धावा बोला.
मुलायम को 'मौलाना मुलायम' का ख़िताब तो ज़रूर मिल गया और साथ ही एक वोट बैंक का समर्थन (जो कि कांग्रेस से उनकी तरफ शिफ़्ट हुआ). लेकिन साल भर ही के अंदर बीजेपी लखनऊ में सत्ता पर काबिज़ हो गई और कल्याण सिंह मुख्यमंत्री बन गए.इस बार फिर से अयोध्या मुद्दे ने एक नया तूल पकड़ा और छह दिसंबर 1992 को बाबरी मस्जिद कारसेवा के नाम पर ध्वस्त कर दी गई. बीजेपी के वरिष्ठ नेता लाल कृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, उमा भारती, इत्यादि, इत्यादि सभी की मौजूदगी में इमारत ध्वस्त हुई और सारी ज़िम्मेदारी मुख्यमंत्री होने के नाते कल्याण सिंह पर आई क्योंकि उसी से कुछ समय पहले वो सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष हलफ़नामा पेश कर चुके थे कि वो मस्जिद के स्टेटस को मेंटेन करवाएंगे और उसे किसी प्रकार का नुकसान नहीं होने देंगे. इस बार राम मंदिर के नाम पर कल्याण सिंह की बारी थी कुर्सी से हाथ धोने की.
बीजेपी ने यदि कुर्सी गवाईं तो राम मंदिर के ही नाम पर कुर्सी वापस भी पाई. और समय के साथ बीजेपी की शक्ति बढ़ी. हालांकि​, बीच में मंदिर मुद्दे को मुलायम की मंडल राजनीति और मायावती की दलित राजनीति ने एक बार फिर पीछे छोड़ दिया, बीजेपी की एक ठोस तरीक़े से वापसी नरेन्द्र मोदी के मैदान में आने से हुई.
उन्होंने मंदिर मुद्दे के राजनीतिक इस्तेमाल को एक नया आयाम दिया. स्वयं मंदिर की बात डायरेक्टली ना करके उसे दूसरे नेताओं और वीएचपी, आरएसएस द्वारा उठवाकर ख़ुद देश के विकास और राजनीति में ईमानदारी को मुद्दा बनाकर अपना सिक्का जमाते गए.
बड़ी सफ़ाई से मंदिर की राजनीति को खेला और उसका भरपूर फ़ायदा भी उन्हें मिला लेकिन मंदिर राजनीति का इल्ज़ाम कभी नहीं लगने दिया.
जबकि विपक्ष के बारे में नेताओं ने भी मंदिर मुद्दे की किसी प्रकार की आलोचना से कतराना शुरू कर दिया है. देखना ये है कि बीजेपी कब तक इसका उपयोग करती रहेगी.
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