
बात कुछ उन दिनों की है जब भारत में बहुत से जमींदार हुआ करते थे। मेरे दादाजी भी उनमे से एक थे भगवान् का दिया सबकुछ था उनके पास वे एक फार्मासिस्ट भी थे काफी खुशहाल परिवार था एक बेटी और पत्नी के साथ वे गाँव में ही रहते थे। उन्हें सरकारी नौकरी थी खूब सारी सम्पति भी थी। बस इंतज़ार था तो एक बेटे का।
लेकिन न जाने उनके खुशहाल परिवार को किसी की नज़र लग गयी। उनकी पत्नी का देहांत हो गया और उनका कोई बेटा भी नहीं था जबकि उस समय में बेटो को ज्यादा ही अहमियत दी जाती थी।
बेटे की लालसा में दादाजी ने दूसरी शादी कर ली। सौभाग्य ऐसा हुआ के उन्हें कुछ ही दिनों बाद एक बेटा हुआ और ऐसा वैसा नहीं एक तेजस्वी बेटे की प्राप्ति हुई उन्हें। लोग कहते हैं वो पढ़ने में काफी तेज़ थे। इसका प्रमाण उन्होंने 12 साल की उम्र में ही दे दिया। उन्हें भारत सरकार द्वारा छात्रवृत्ति (Scholarship) दिया गया था। उनका सारा खर्च भारत सरकार ही उठाती थी। लेकिन न जाने किसकी नज़र लगी जिस वर्ष उन्हें छात्रवृत्ति मिली उसी वर्ष उन्हें अचानक 2-3 खून की उल्टिया हुई और उनकी मृत्यु हो गयी। दादाजी पूरी तरह से टूट चुके थे। लेकिन दादाजी की उम्र ज्यादा नहीं थी उन्होंने उम्मीद नहीं छोड़ी उनकी एक और बेटी थी जो उनके बेटे से 10 साल छोटी थी। अब उनकी दोनों बेटियां और पत्नी रहते थे। चूंकि दादा जी खुद बहुत पढ़े लिखे थे वे शिक्षा को बहुत अहमियत देते थे यही वजह था के वो अपनी बेटियों को उस ज़माने में भी अच्छी शिक्षा दे रहे थे।
फिर उनका एक बेटा हुआ जो जन्म से ही विकलांग था। दादजी पूरी तरह टूट चुके थे। उन्होंने अपनी नौकरी से इस्तीफा दे दिया उनके पास जो मरीज आते थे उसे मुफ्त में दवाई देने लगे। उनसे आकर कोई कुछ भी मांगता और वे ख़ुशी ख़ुशी दे देते थे बहुत सी जमीने उन्होंने ऐसे ही दान में दे दी।
फिर दादाजी की एक बेटी हुई जिन्हे दादाजी अपने लिए काफी सौभाग्यशाली मानते थे जहाँ जाते इन्हे लेकर जाते थे और वो थीं भी काफी सौभाग्यशाली उनके जन्म के 2 साल बाद दादा जी को बेटा हुआ। सभी बहुत खुश हुए तब तक दादाजी की बड़ी बेटी की शादी हो चुकी थी और दूसरी बेटी दसवीं की परीक्षा दे रही थी उस वक़्त चारो तरफ खुशहाली छा गयी दादाजी को उम्मीद मिली लेकिन लगता है दादाजी के नसीब में ख़ुशी नहीं लिखी थी भगवान् ने। जब उनका बेटा 6 साल का हुआ तो दादाजी का देहांत हो गया। पूरा परिवार पूरी तरह से टूट चूका था। लगा जैसे एक के बाद एक दुखों का पहाड़ टूट पड़ा हो। सारी जिम्मेदारी दादीजी के ऊपर आ चुकी थी। चूँकि दादीजी को कोई नौकरी नहीं थी और कहीं से आमदनी का स्रोत भी नहीं था। फिर भी दादीजी ने दोनों बेटो तथा दोनों बेटियों का भरण-पोषण बिना किसी के सहारे किया।
जब तक दादाजी थे तब तक सब शुभचिंतक थे और दादाजी के देहांत के बाद सभी दुश्मन बन गए। सभी दुष्टापूर्वक व्यवहार करते थे। सभी को लगता था कि अब इनके परिवार का कोई भविष्य नहीं है। लेकिन दादीजी ने ऐसा होने नहीं दिया। उन्होंने अपने बेटे को जी जान लगा कर पढ़ाया और उनका भरण-पोषण भी बखूबी किया।जब उनका बेटा दसवीं में था तब दादीजी का भी देहांत हो गया। अब दो भाई और एक बहन चूँकि बड़े भाई शारीरिक तौर पर विकलांग थे फलस्वरूप सारी जिम्मेदारी छोटे भाई पर ही आ गयी।
दादाजी का छोटा बेटा यानी मेरे पिताजी सिर्फ 15 वर्ष के थे तब दादीजी का देहांत हो गया था। और उनके पास धन अर्जित करने का कोई साधन नहीं था। तो उन्होंने पढ़ाना शुरू किया धीरे-धीरे उन्होंने अपना कोचिंग इंस्टिट्यूट (Coaching Institute) खोला और फिर एक स्कूल भी खोला और बहुत कम उम्र में ही वो प्रसिद्ध शिक्षक बने अब वह 6 आदमी का भरण-पोषण अकेले करते हैं। उनकी दोनों बड़ी बहने मध्य विद्यालय में प्रधानाध्यापिका हैं।
बेशक अगर आज दादाजी होते तो बहुत खुश होते!
इस कहानी की लेखिका प्रज्ञा कुमारी मिश्रा जी हैं मैं उनका आभार व्यक्त करता हूँ उन्होंने अपनी कहानी मुझसे शेयर की तभी मैं इसे यहाँ तक ला पाया।
धन्यवाद !


2 Comments
Thank you 😊
ReplyDeleteWelcome ji
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