भारत क्यों अमेरिका से पीछे हैं?

दुनिया में लगभग 200 मुल्क है, और इस बात में कोई संदेह नहीं कि अमेरिका के अन्य देशो की तुलना में अभूतपूर्व विकास किया है। और उनकी रफ़्तार इतनी तेज है कि पूरी दुनिया के मुल्क मिलकर भी अमेरिका का मुकाबला नहीं कर पा रहे है। जहाँ तक मैं देखता हूँ, अमेरिका का विकास अभी शैशव अवस्था है, और आने वाले समय में अमेरिकी-ब्रिटिश धनिक लगभग पूरी दुनिया का अधिग्रहण कर लेंगे।
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1774 तक अमेरिका एक गुलाम देश था, और उनकी हालत भारत की तुलना में काफी पिछड़ी हुयी थी। आजादी आने के अगले 100 वर्ष में अमेरिका एक बड़ी ताकत के रूप में उभर चुका था, और 1950 तक आते आते अमेरिका ब्रिटेन से ज्यादा शक्तिशाली हो चुका था !!
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अमेरिका भारत से आगे निकल गया है, क्योंकि अमेरिकी कम्पनियों के पास भारत की तुलना में बेहतर तकनीक है। अमेरिका का पूरा तकनिकी विकास अमेरिकी कम्पनियों का विकास है। अत: हम सीधे शब्दों में यूँ भी कह सकते है कि चूंकि भारत की कम्पनियां अमेरिकी कम्पनियों की तुलना में पिछड़ गयी है, अत: भारत अमेरिका से पीछे रह गया है।
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भारत, चीन एवं पाकिस्तान साथ साथ आजाद हुए। आजादी के समय भारत सबसे बेहतर स्थिति में था और चीन के मुकाबले तकनिकी-सैन्य रूप से काफी उन्नत था। लेकिन अगले 50 साल में चीन भारत से किलोमीटरो के हिसाब से आगे निकल गया। तो इसकी वजह क्या रही !! मेरे विचार में किसी भी देश के विकास में इस असाधारण विसंगति एक मात्र कारण सिर्फ और सिर्फ क़ानून प्रक्रियाएं होती है। अच्छे क़ानून अच्छा देश बनाते है, और बुरे क़ानून बुरा।
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अमेरिका की कम्पनियां भारत की कंपनियों से आगे क्यों निकल गयी ?
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दरअसल, कारखाना मालिक सबसे प्रोडक्टिव वर्ग है, और यह वर्ग काफी तेजी से पैसा बनाता है। जब ये पैसा बनाने लगते है तो जज-पुलिस-नेता की नजरो में आ जाते है, और ये लोग इनसे पैसा खींचना शुरू कर देते है। यदि किसी देश में ऐसी कानूनी प्रक्रियाएं है जो जज-पुलिस-नेता माफिया से फैक्ट्री मालिको की रक्षा करती है तो अमुक देश में स्थानीय कम्पनियां विकास करने लगेगी, और यदि देश में ऐसी क़ानून प्रक्रियाएं नहीं है तो जज-पुलिस-नेता की तिकड़ी इन्हें उसी तरह खा जायेगी, जिस तरह माँसाहारी पशु शाकाहारी जीवो का भक्षण कर जाते है !!
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जहाँ तक मैं देखता हूँ, अमेरिका-ब्रिटेन में ऐसी कई कानूनी प्रक्रियाएं है जो वहां के कारखाना मालिको की रक्षा करती है, जबकि भारत में इन प्रकियाओं का अभाव है। इस जवाब मैं मैंने इनमे से कुछ महत्त्वपूर्ण प्रक्रियाओं के बारे बताया है, जो अमेरिकी कम्पनियों के असाधारण तकनिकी विकास के लिए मुख्य रूप से जिम्मेदार है।
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मेरे विचार में आज भारत की राजनीति / इतिहास में निचे दिए गए 4 प्रश्न सबसे महत्त्वपूर्ण है, और भारत के प्रत्येक कार्यकर्ता को इन प्रश्नों के जवाब ढूँढने के प्रयास गंभीरता से करने चाहिए। यदि भारत का कोई नेता / कार्यकर्ता / बुद्धिजीवी / पत्रकार / आर्थिक-सामरिक विशेषग्य निचे दिए गए इन 4 प्रश्नों के उत्तर देने की अवहेलना कर रहा है, तो मेरे दिमाग में संदेह के बादल तुरंत घुमड़ने लगते है :
  1. पिछले 100 वर्षो के दौरान भारत अमेरिका-ब्रिटेन से पीछे क्यों रहा है ?
  2. भारत की सैन्य ताकत अमेरिका-ब्रिटेन की तुलना में लगातार कमजोर क्यों हो रही है ?
  3. भारत और अमेरिका-ब्रिटेन के बीच बिगड़ते इस शक्ति अनुपात के हमें क्या दुष्परिणाम भुगतने पड़ सकते है ?
  4. इस शक्ति अनुपात को सुधारने में भारत के हम छोटे छोटे कार्यकर्ताओ की क्या भूमिका है ?
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टिप्पणी : यह एक राजनैतिक प्रश्न है और मेरे विचार में इस तरह के गंभीर विषय को राजनैतिक दृष्टिकोण से ही उत्तरित किया जाना चाहिए। मैंने इन प्रश्नो के उत्तर खोजे और उनकी तुलना सोनिया जी , मोदी साहेब और श्री अरविन्द केजरीवाल, कांग्रेस-बीजेपी-आपा के नेताओ, आरएसएस नेतृत्व, पेड अर्थशास्त्रियों / अनर्थशास्त्रियो, पेड पत्रकारों-संपादको एवं विभिन्न प्रबुद्ध पेड राजनैतिक विचारको द्वारा बताये गए उत्तरो से की। और मैं पाता हूँ कि मेरे और उनके जवाबो में दूर दूर तक कोई साम्य नहीं है। इसमें सीधे सीधे 180 डिग्री का फासला है। अब यह बहस की बात है कि मेरा निष्कर्ष ठीक है, या अमुक पक्षकारो का। ]
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(प्रश्न-1) तथा (प्रश्न -2) के लिए मेरा जवाब है :
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भारत के पिछड़ने की मुख्य वजह निचे दी गयी 5 प्रक्रियाओं का अभाव है -
  1. ज्यूरी कोर्ट
  2. मल्टी इलेक्शन
  3. वोट वापसी
  4. जनमत संग्रह की प्रक्रियाएं।
  5. जमीनों एवं करो के क़ानून
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(प्रश्न-3) के बारे में मेरा जवाब है -
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यदि भारत और अमेरिका-ब्रिटेन के बीच मौजूदा शक्ति अनुपात में जल्दी ही सुधार नहीं किया गया तो पूरी संभावना है कि अमेरिका भारत का पुन: उसी तरह अधिग्रहण कर लेगा जिस तरह 1750-1800 के बीच ब्रिटेन ने भारत पर कब्ज़ा जमा लिया था।
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(प्रश्न-4) के जवाब में मैं कहूँगा कि कार्यकर्ताओ को उपरोक्त वर्णित 5 कानूनी प्रक्रियाओ को भारत में लागू करवाने के लिए प्रयास करने चाहिए।
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सोनिया जी, मोदी साहेब और श्री अरविन्द केजरीवाल इन गंभीर प्रश्नो की जानबूझकर अवहेलना कर रहे है, और (प्रश्न-1 से प्रश्न-3) का जवाब नहीं दे रहे है।
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लेकिन डराने वाली बात यह है कि सोनिया-मोदी-केजरीवाल अमेरिका को भारत के घनिष्ठ मित्र की तरह प्रस्तुत करके एफडीआई का समर्थन कर रहे है, जिसके परिणाम स्वरूप हमें डॉलर के पुनर्भुगतान ( Repatriation Crisis ) का सामना करना पड़ेगा, और अमेरिका भारत की सम्पत्तियो पर नियंत्रण हासिल कर लेगा। इनमे से कोई भी भारत के बिगड़ते शक्ति अनुपात को समस्या मानने को राजी नहीं है।
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इन प्रश्नो के विषय में कांग्रेस-बीजेपी और आम आदमी पार्टी के अन्य नेताओ का भी वही रूख है जो की सोनिया जी, मोदी साहेब और केजरीवाल जी का है।
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आरएसएस नेतृत्व का मानना है कि अमेरिका-ब्रिटेन भारत से इसीलिए आगे है, क्योंकी हमारा राष्ट्रीय चरित्र घटिया है, और भारतियों में एकता का अभाव है !!
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दूसरे शब्दों में, उनका मानना है कि, प्रशासकीय कारक जैसे वोट वापसी, ज्यूरी कोर्ट, मल्टी इलेक्शन, जनमत संग्रह, कर प्रणाली आदि प्रक्रियाओ की इस विषय में भूमिका शून्य है !!
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लेकिन इस मामले में आरएसएस नेतृत्व कांग्रेस-बीजेपी-आपा आदि के नेताओ से एक हद तक कम बदतर है। क्योंकि कम से कम वे यह तो मानते है कि भारत और अमेरिका-ब्रिटेन के बीच बिगड़ता शक्ति अनुपात चिंता का विषय है, और यदि इसे नहीं सुधारा गया तो अमेरिका भारत को गुलाम बना लेगा।
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और भारत के "राष्ट्रीय चरित्र" का विकास करने और "एकता" बढ़ाने के लिए आरएसएस का शीर्ष नेतृत्व कार्यकर्ताओ को क्या करने को कहता है ?
  • पहली बात तो यह कि आरएसएस नेतृत्व इस सम्बन्ध में कानूनी ड्राफ्ट्स की भूमिका को खारिज कर देता है, और अपने स्वयंसेवको को कानूनी ड्राफ्ट्स न पढ़ने की प्रेरणा देता है;
  • दूसरे, आरएसएस अपने मझौले स्तर के प्रचारको को यह भ्रम फैलाने के लिए कहता है कि जूरी कोर्ट इसीलिए भारत के लिए बुरा विचार है क्योंकि भारत के नागरिक मूर्ख है !!
  • और तीसरे, कार्यकर्ताओ को नियमित रूप से शाखाओ में आकर व्यायाम करना चाहिए, सामाजिक कार्य करने चाहिए, किसी अन्य राजनैतिक विकल्प की तलाश नहीं करनी चाहिए और ज्यादा से ज्यादा नागरिको को बीजेपी को वोट करने के लिये प्रोत्साहित करना चाहिए।
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और इन्ही सब कार्यो को पूरे मनोयोग से करने से भारत और अमेरिका-ब्रिटेन के बीच बिगड़ता शक्ति अनुपात अपने आप बेहतर होता चला जाएगा !!! मैं इस बारे में आगे चर्चा करूँगा कि ये सब नुस्खे कार्यकर्ताओ की समय और ऊर्जा नष्ट करके किस तरह देश को गंभीर क्षति पहुंचाते है।
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राजनैतिक अन्धशास्त्र ( जिसे गलती से राजनीति शास्त्र के नाम से जाना जाता है ) के प्रोफेसरों का दावा है कि भारत और अमेरिका के मध्य बिगड़ते शक्ति अनुपात के लिए भारत और अमेरिका की राजनैतिक संस्कृति में भिन्नता जिम्मेदार है !!
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इन राजनैतिक अंधविश्वासियों, ( जो कि खुद को राजनैतिक विज्ञानी कहलाना पसंद करते है ) का मानना है कि भारत की राजनैतिक संस्कृति हीन जबकि अमेरिका की राजनैतिक संस्कृति उच्च है, और उनकी राय में 'सिर्फ और सिर्फ' यही वह कारण है जिसके कारण भारत अमेरिका से पिछड़ गया है। ये विशेषज्ञ इस तथ्य को सिरे से खारिज कर देते है कि इस सम्बन्ध में वोट वापसी, ज्यूरी कोर्ट, मल्टी इलेक्शन, जनमत संग्रह, कर प्रणाली आदि प्रक्रियाओ का कोई लेना देना है।
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और भारत को शक्तिशाली बनाने के लिए ये विशेषज्ञ कार्यकर्ताओ को क्या करने का सुझाव देते है ?
उनका कहना है - विश्लेषण करिये, फिर विश्लेषण करिये और खूब विश्लेषण करिये !!! इन कथित बुद्धिजीवियो ने इस समस्या के समाधान के लिए कानूनी ड्राफ्ट्स के बारे में कभी एक वाक्य भी नहीं कहा है !!
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मेरे विचार में भारत के कार्यकर्ताओ को इन बेतुके समाधानो का पीछा करना छोड़ना चाहिए, और कानूनी ड्राफ्ट आधारित गतिविधियों पर कार्य करना चाहिए, वरना जल्दी ही भारत पर अमेरिका-ब्रिटेन के धनिक पुन: नियंत्रण स्थापित कर लेंगे।
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अध्याय
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(1) अमेरिका-ब्रिटेन भारत से सभी क्षेत्रो में आगे क्यो है ?
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मेरा जवाब बनाम सोनिया-मोदी-केजरीवाल, बीजेपी-कांग्रेस-आप के नेताओ, आरएसएस नेतृत्व और राजनैतिक अंधविश्वासियों के जवाब।
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मेरा जवाब है - अमेरिका-ब्रिटेन भारत से सभी क्षेत्रो में आगे है, क्योंकि अमेरिका में ज्यादा बेहतर क़ानून है, और भारत में कार्यकर्ता अच्छे कानूनो को लागू करने के लिए प्रयास नहीं कर रहे है। यहां तक कि ज्यादातर कार्यकर्ताओ को इस सम्बन्ध में जानकारी ही नहीं है। इन कानूनो का ब्यौरा इस प्रकार है :
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1.1. ज्यूरी सिस्टम
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ज्यूरी सिस्टम की खोज सर्वप्रथम 700 ईसा पूर्व ग्रीक वासियों ने की थी, तदुपरांत रोम ने इसे अपनाया और फिर यह लुप्त हो गयी। बाद में विकिंग्स ने 600 ईस्वी में ज्यूरी सिस्टम का प्रयोग करना प्रारम्भ किया। पश्चात जैसे जैसे विकिंग्स यूरोपीय भू-भाग को अपने नियंत्रण में लेते गए, उन हिस्सों में ज्यूरी सिस्टम फैलता गया। सबसे पहले इसे 950 ईस्वी में ब्रिटेन ने लागू किया, जिसे कोरोनर ज्यूरी के नाम से भी जाना जाता है। बाद में मैग्नाकार्टा के रूप में इसका विस्तृत रूप 1100 ईस्वी में लागू हुआ।
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ब्रिटेन में ज्यूरी सिस्टम शासन के सभी स्तरों पर लागू था, तथा सिविल, फौजदारी और टैक्स विवादों की सुनवाई का अधिकार नागरिको की ज्यूरी को संविधान प्रदत्त था। ब्रिटेन के सांसदों ने 1950 में सिविल मामलो में और बाद में कर विवादों की सुनवाई में ज्यूरी ट्रायल को रद्द कर दिया। शने: शने: अन्य यूरोपीय देशो में भी ज्यूरी सिस्टम टूटता चला गया।
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भारत में ज्यूरी सिस्टम सर्वप्रथम अंग्रेजो ने 1870 में लागू किया था, लेकिन प्रधानमन्त्री जवाहर लाल समेत सभी पार्टियो के सांसदों, सुप्रीम कोर्ट के न्यायधीशों और राजनैतिक अंधविश्वास के विशेषज्ञों ने ज्यूरी सिस्टम का सम्मिलित रूप से विरोध किया, और अंततोगत्वा 1956 में इसे रद्द करवा दिया।
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ज्यूरी सिस्टम निम्न समस्याओ का समाधान करता है :
  1. न्यायिक भाई-भतीजावाद
  2. न्यायिक गठजोड़
  3. न्यायपालिका में स्थानांतरण, निलंबन और बर्खास्तगी का भय
  4. न्यायपालिका में पदोन्नति का लालच और अच्छी जगह पर पदस्थापन
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जब कोई न्यायधीश अपने परिचित वकील को लाभ देने के लिए न्यायिक पक्षपात करता है, तो इसे न्यायिक भाई-भतीजावाद कहा जाता है। जब न्यायधीश अपने निकटस्थ वकील के माध्यम से उन धनिकों और अपराधियो को लाभ पहुंचाता है जिनके कई मुकदमे अदालतों में लंबित हो, तो यह गतिविधिया न्यायिक गठजोड़ की श्रेणी में आती है। जजो में स्थानांतरण, निलंबन और बर्खास्तगी के भय का संचार तब होता है जब कोई कनिष्ठ जज वरिष्ठ जज को संतुष्ट करने के लिए उनके द्वारा चाहा गया फैसला इस कारण देता है कि उनके निर्देश का पालन न करने पर वरिष्ठ जज उन्हें बर्खास्त कर देगा, या बदतर जगह स्थानांतरित कर देगा।
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धनिक वर्ग हाईकोर्ट / सुप्रीमकोर्ट जजो से गठजोड़ बनाकर रखते है, और कनिष्ठ जज वरिष्ठ जजो की इच्छाओ का पालन करते है। पदोन्नति के लालच और अच्छी जगह पर पदस्थापन के लिए कनिष्ठ जज वरिष्ठ जजो की आज्ञाओं का पालन करते है, क्योंकि वे जानते है कि वरिष्ठ जजो की अनुकम्पा से ही वे अच्छी जगह पर नियुक्त हो सकते है, और पदोन्नति पा सकते है। इससे धनिक वर्ग, जिनका गठजोड़ वरिष्ठ जजो से होता है, अपने पक्ष में फैसले करवाने में सक्षम बने रहते है।
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ज्यूरी सिस्टम में ज्यूरर्स को स्थानांतरण, बर्खास्तगी और निलंबन का कोई भय नहीं होता क्योंकि ज्यूरर्स की नियुक्ति सिर्फ एक मुकदमे की सुनवाई करने के लिए ही होती है, और न ही ज्यूरर्स के पास पदोन्नति के अवसर होते है। मान लीजिये एक आरोपी का 10 वकीलों से परिचय है और प्रत्येक वकील के 100 रिश्तेदार है। इस प्रकार लगभग 1000 नागरिक उन 10 वकीलों के रिश्तेदार है।
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अब यदि 10 लाख की मतदाता सूची में से 12 ज्यूरर्स का रेंडमली चयन किया जाता है तो कितनी संभावना है कि कोई ज्यूरर इन वकीलों का परिचित निकलेगा ? 1% से भी कम। और 12 में से 2 ज्यूरर्स के आपस में रिश्तेदार निकलने की प्रायिकता का संभावित प्रतिशत क्या है ? स्पष्ट है कि जज सिस्टम की तुलना में ज्यूरी सिस्टम में भाई-भतीजावाद के अवसर बेहद कम है।
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इस प्रकार जज सिस्टम के मुकाबले ज्यूरी सिस्टम में गठजोड़ बनाने की संभावनाए बेहद कमजोर है।
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जज सिस्टम की तुलना में ज्यूरी सिस्टम छोटी इकाइयों को बड़ी कम्पनियो द्वारा सरकार के शीर्ष स्तर पर गठजोड़ बनाकर नष्ट करने के प्रयासों पर भी रोक लगाता है और उन्हें सरंक्षण प्रदान करता है।
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क्यों और कैसे ?
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मान लीजिये कि किसी बाजार में 10 बड़ी कंपनिया L1 से L10 और 10000 छोटी इकाइयां S1 से S10000 है, तथा 25 सुप्रीम कोर्ट के न्यायधीश SCj1 से SCj25 और 20000 निचली अदालतों के जज LCj1 से LCj20000 है।
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संभावना है कि S1 से S10000 इकाइयों के मालिको का गठजोड़ कुछ LCj1 से LCj20000 जजो से हो, लेकिन बहुत ही कम संभावना है कि ये छोटी कम्पनियो के मालिक सुप्रीम कोर्ट के न्यायधीशों SCj1 से SCj25 तक पहुँच बना सके। जबकि बड़ी कम्पनियो के मालिको L1 से L10 का गठजोड़ कनिष्ठ न्यायधीशों LCj1 से LCj20000 की तुलना में सुप्रीम कोर्ट के न्यायधीशों SCj1 से SCj25 से होने की संभावना बहुत अधिक है।
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यह भी सम्भव है कि बड़ी कम्पनियो के मालिक किसी भी छोटे न्यायधीश से परिचित नहीं हो, लेकिन निचली अदालतों के सभी LCj1 से LCj20000 जज सुप्रीम कोर्ट के न्यायधीशों SCj1 से SCj25 के नियंत्रण में रहते है। इस प्रकार बड़ी कम्पनियो के मालिक सुप्रीम कोर्ट के न्यायधीशों से गठजोड़ बनाकर पूरी न्यायपालिका को कब्जे में कर लेते है और छोटी कम्पनियो के खिलाफ फैसले करवाकर उन्हें बाजार से बाहर कर देते है !!!
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जबकि ज्यूरी सिस्टम में S1 से S10000 तक की सभी छोटी इकाइयों से सम्बंधित विवादों के निपटारे के लिए मतदाता सूची में से 12-50 ज्यूरी सदस्यों का रेंडमली चयन किया जाता है। इस तरह बड़ी कम्पनियो के मालिक L1 से L10 देश के लाखो नागरिको से गठजोड़ बना कर फैसलों को अपने पक्ष में प्रभावित नहीं कर पाते।
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इस प्रकार जज सिस्टम की तुलना में ज्यूरी सिस्टम छोटी इकाइयों को बड़ी कम्पनियो द्वारा न्यायपालिका और सरकार के शीर्ष स्तर से गठजोड़ बनाकर नष्ट करने के प्रयासों से बचा लेता है।
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यही कारण है कि जिन देशो ने अपनी न्याय व्यवस्था में ज्यूरी सिस्टम लागू किया, उन देशो ने तकनिकी तौर पर ज्यादा विकास किया और वे ज्यादा बेहतर हथियार और उपकरणो का आविष्कार कर पाये। उदाहरण के लिए ज्यूरी सिस्टम के कारण ही ग्रीस वासियो के पास इजिप्ट, तुर्की, ईरान और भारत से बेहतर हथियार थे। यही कारण था कि ब्रिटेन दुनिया के सबसे उन्नत हथियार बनाने में कामयाब हो सका। और आज अमेरिका में सबसे मजबूत ज्यूरी सिस्टम होने के कारण ही अमरीका पूरी दुनिया की तुलना में सबसे बेहतर हथियारों का उत्पादन कर रहा है।
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ज्यूरी सिस्टम प्रशासन में कनिष्ठ स्टाफ के भ्रस्टाचार और उद्दंड व्यवहार पर भी अंकुश बना कर रखता है। जज सिस्टम में भ्र्ष्टाचार की शिकायत की सुनवाई जज द्वारा की जाती है, और बहुधा आरोपी अधिकारियो का पहले से ही जजो के साथ गठजोड़ होता है। जबकि ज्यूरी सिस्टम में आरोपी अधिकारी के पास ज्यूरर्स के साथ ऐसा गठजोड़ पहले से बना कर रखने का कोई अवसर नहीं होता। असल में आरोपी को इसकी जानकारी ही नहीं होती कि कौन से नागरिक उसके मुकदमे की सुनवाई करने वाले है। इसलिए जिन देशो में ज्यूरी सिस्टम लागू है वहाँ के अधिकारी भ्र्ष्टाचार और नागरिको का उत्पीड़न करने से बचते है।
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अत: मेरे विचार में ज्यूरी सिस्टम की क़ानून प्रक्रियाएं होना वह महत्त्वपूर्ण कारण है, जिसके चलते जो ब्रिटेन 950 ईस्वी तक भारत से पीछे था, 1200 ईस्वी में भारत से आगे निकल गया, और 16 वीं सदी में इतना मजबूत हो गया कि भारत में प्रवेश कर सके। और मजबूत ज्यूरी सिस्टम के कारण ही आज अमेरिका दुनिया के बाकी देशो से मीलों आगे निकल गया है।
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भारत में जूरी सिस्टम की स्थापना करने के लिए जिस इबारत को गेजेट में प्रकाशित करने की आवश्यकता है, उसका प्रस्तावित ड्राफ्ट जूरी कोर्ट मंच पर देखा जा सकता है।
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सोनिया जी, मोदी साहेब और श्री केजरीवाल = सो.मो.के. , आरएसएस का शीर्ष नेतृत्व और राजनैतिक अंधशास्त्र के विशेषज्ञ ज्यूरी सिस्टम के बारे में क्या कहते है ?
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  • सो.मो.के. सम्मिलित रूप से ज्यूरी सिस्टम का विरोध कर रहे है। मिसाल के लिए श्री अरविन्द केजरीवाल ने उनके प्रस्तावित जनलोकपाल क़ानून में ज्यूरी सिस्टम के प्रावधानों को जोड़ने से मना कर दिया है। मोदी साहेब ने भी 2014 में न्यायपालिका सम्बन्धी जो संविधान संशोधन किया, उसमे ज्यूरी सिस्टम से सम्बंधित प्रावधानों को जोड़ने से साफ़ इंकार कर दिया था। कांग्रेस-बीजेपी और आम आदमी पार्टी का प्रत्येक नेता हमेशा से ही ज्यूरी सिस्टम का धुर विरोधी और जज सिस्टम का मुरीद रहा है।
  • आरएसएस का शीर्ष नेतृत्व भी हमेशा से ज्यूरी सिस्टम का विरोधी रहा है। उदाहरण के लिए, जब 1956 में जवाहर लाल ने भारत से ज्यूरी सिस्टम समाप्त कर दिया था तो आरएसएस के नेतृत्व और जनसंघ के सभी नेताओ ने इस फैसले का समर्थन किया था। साथ ही आरएसएस ने अपने मझौले स्तर के प्रचारको को यह निर्देश दे रखे है कि वे अपने स्वयंसेवको को ज्यूरी सिस्टम के बारे में कोई जानकारी न दें।
  • भारत में पेड राजनैतिक अंधशास्त्र ( जिसे गलती से राजनीति विज्ञान के नाम से जाना जाता है ) के विशेषज्ञ भी सदा से ही ज्यूरी सिस्टम का विरोध करते रहे है। इसलिए उन्होंने अपनी पुस्तकों में जानबूझकर ज्यूरी सिस्टम का कभी जिक्र नहीं किया। भारत की किसी राजनीति विज्ञान की किसी भी किताब में ज्यूरी सिस्टम के बारे में जानकारी प्रतीकात्मक रूप से भी इसीलिए नहीं दी गयी है कि, ऐसा करने से छात्रों को इस बारे जानकारी प्राप्त होने की संभावना बढ़ जायेगी। असल में इन सभी विशेषज्ञों को धनिक वर्ग द्वारा यह जानकारी छुपाने के लिए भुगतान किया जाता है।
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1.2. वोट वापसी कानूनी प्रक्रियाएं
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अमेरिका में राज्य तथा जिला स्तर पर लगभग सभी पदो पर वोट वापसी प्रक्रियाएं है। हालांकि अमेरिका के संघीय शासन में वोट वापसी प्रक्रियाएं नहीं है। उन पदो पर भी नही जिन्हे नियुक्त किया जाता है, और न ही ऐसे पदो पर जो चुन कर आते है।
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कई राज्यों में निम्नलिखित पद वोट वापसी के दायरे में है :
  1. गवर्नर तथा उप गवर्नर
  2. राज्यों के मंत्री
  3. राज्यों के लोक अभियोजक (पब्लिक प्रॉसिक्यूटर)
  4. राज्यो के न्यायधीश
  5. विधायक या सभासद (असेम्ब्ली मेन)
  6. जिला पुलिस प्रमुख (शेरिफ)
  7. जिला शिक्षा अधिकारी
  8. जिला लोक अभियोजक
  9. जिला जज
  10. जिला / नगर मेयर (सभापति)
  11. जिला / नगर काउंसलर
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कई पदो के लिए वोट वापसी की प्रक्रिया निर्धारित है, तथा कई पदो के लिए प्रक्रिया निर्धारित नहीं है। किन्तु जनमत संग्रह के जरिये नागरिक रिकॉल कर सकते है।
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कई पद ऐसे है जो जनता द्वारा निर्वाचित नहीं है, तथा उन्हें नियुक्त किया जाता है, किन्तु इनके विभागीय मुखिया पर वोट वापसी प्रक्रियाएं मौजूद है।
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अमेरिका में वोट वापसी प्रक्रियाएं यह सुनिश्चित करती है कि, शीर्ष अधिकारी भ्रष्ट आचरण नहीं करेंगे और कार्यकुशलता का आवश्यक स्तर बनाये रखेंगे। कम से कम वे अपने काम काज का स्तर वैसा बनाये रखते है, जिस औसत स्तर का निष्पादन इसी पद को धारण करने वाले अन्य जिलो / राज्यों के अधिकारी कर रहे है।
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इससे क्या फर्क आता है ?
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मान लीजिये कि, अमेरिका में 1000 पुलिस प्रमुख कार्य कर रहे है, तथा इनमे से 1% पुलिस प्रमुख नवाचारों का प्रयोग करके प्रशासन में सकारात्मक बदलाव ले आते है, जिससे नागरिको को राहत मिलती है। ऐसी स्थिति में देर-सवेर अन्य पुलिस प्रमुखो को भी उन नवाचारों को अनिवार्य रूप से लागू करना होगा, अन्यथा नागरिको द्वारा उन्हें निकाले जाने की संभावना बढ़ती जायेगी।
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इसी तरह मुख्य अधिकारी भी यह प्रयास करते है कि उनका स्टाफ ईमानदारी से कुशलता पूर्वक कार्य करे। क्योंकि यदि एक अधिकारी भ्रस्ट आचरण पर दण्डित नहीं किया जाता है तो उसके सह वर्गियो को भी भ्रष्टाचार करने का प्रोत्साहन मिलेगा, और पूरे विभाग के अधिकारी धीरे धीरे भ्रस्ट और अकार्यकुशल हो जायेंगे। यदि उसका ज्यादातर स्टाफ विभाग भ्रष्ट हो जाता है तो नागरिक पीड़ित होंगे और इस भ्रस्टाचार का जिम्मेदार मुख्य अधिकारी को ठहराएंगे, अत: मुख्य अधिकारी के निष्कासित होने की संभावना बढ़ जायेगी।
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तो यही वह मुख्य कारण है, जिसके चलते अमेरिका में सभी विभागो के मुख्य अधिकारी अपने उन कर्मचारियों को ट्रेप करने के लिए जाल बिछाते है, जिन पर भ्रष्ट आचरण का संदेह हो। कनिष्ठ स्टाफ भी इस बात से भली-भाँती परिचित रहता है कि शीर्ष अधिकारी भ्रस्ट अधिकारियों को ट्रेप करने के लिए समय समय जाल बिछाते है। इसीलिए अमेरिका में अधिकारी / लोक सेवक भारत तथा उन देशो की तुलना में बहुत कम भ्रस्ट है जिन देशो में वोट वापसी क़ानून क़ानून नहीं है।
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अमेरिका में राज्य तथा जिला स्तर पर लगभग सभी पदो पर वोट वापसी प्रक्रियाएं है, लेकिन अमेरिका के केंद्रीय शासन में वोट वापसी नहीं है। यही कारण है कि अमेरिका के केंद्रीय अधिकारियों में जिला / राज्यों की तुलना में बहुत ज्यादा भ्रष्टाचार है।
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अमेरिका में जिला / राज्य स्तर पर इसीलिए मजबूत ज्यूरी सिस्टम बना हुआ है क्योंकि वहाँ के नागरिको के पास जज, पुलिस प्रमुख, लोक अभियोजक तथा मेयर आदि पदो पर वोट वापसी क़ानून है। जबकि संघीय सरकार में वोट वापसी प्रक्रियाएं न होने से केंद्रीय स्तर पर ज्यूरी सिस्टम बेहद कमजोर होता चला गया।
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मेरा निष्कर्ष है कि अमेरिका को भारत से ज्यादा उत्पादक और कार्यकुशल देश बनाने में वोट वापसी कानूनों की महत्त्वपूर्ण भूमिका है।
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तो, सोमोके, आरएसएस का शीर्ष नेतृत्व और राजनैतिक अंधशास्त्र के विशेषज्ञ वोट वापसी कानूनों के बारे में क्या कहते है ?
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  • सोमोके वोट वापसी कानूनो के विरोधी है। कांग्रेस-बीजेपी-आम आदमी पार्टी के सभी नेता भी वोट वापसी कानूनो के विरोधी है। श्री अरविन्द केजरीवाल ने जनलोकपाल क़ानून में वोट वापसी कानूनो के प्रावधानों को शामिल करने से इंकार कर दिया। यही नहीं उन्होंने हमेशा से ही पुलिस प्रमुख, जज, जिला शिक्षा अधिकारी आदि को वोट वापसी पासबुक के दायरे में लाने का विरोध किया है।
  • संघ का शीर्ष नेतृत्व भी हमेशा से वोट वापसी कानूनो का विरोधी रहा है। भारत में वोट वापसी कानूनो की मांग सबसे पहले 1925 में अहिंसामूर्ति महात्मा चंद्रशेखर आजाद ने की थी। और उसी समय संघ के सरसंघ संचालक केशव बलिराम हेडगेवार ने वोट वापसी कानूनो का विरोध करना शुरू कर दिया था।

    1925 में अहिंसामूर्ति महात्मा चंद्रशेखर आजाद ने कहा था कि

    हम जिस गणराज्य की स्थापना करना चाहते है, उसमे नागरिको को यह अधिकार होगा की वे आवश्यकतानुसार अपने प्रतिनिधियों को नौकरी से निकाल सके, अन्यथा लोकतंत्र एक मजाक बन कर रह जाएगा।

    मतलब, महात्मा चंद्रशेखर आजाद ने वोट वापसी प्रक्रियाओ विहीन लोकतंत्र को एक मजाक की संज्ञा दी थी। संघ का शीर्ष नेतृत्व सदा से ही स्वयंसेवको को यह समझाने में लगा हुआ है कि वोट वापसी कानूनी प्रक्रियाओ से देश में अस्थिरता आ जायेगी, अत: देश से भ्रस्टाचार मिटाने का सही तरीका वोट वापसी क़ानून नहीं है। इसकी जगह हमें मजबूत राष्ट्रीय चरित्र वाले सैंकड़ो सांसद, हजारो एमएलए, सैकड़ो मंत्री और हजारो आईएएस / आईपीएस अधिकारियों की आवश्यकता है।

    लेकिन वे इस बारे में कभी खुलासा नहीं करते कि कौनसा इंजेक्शन लगाने से किसी आदमी का चरित्र इतना मजबूत बनाया जा सकता है कि, वह सत्ता में आने के बाद भी भ्रष्ट होने से बचा रहे !! असल में संघ का शीर्ष नेतृत्व इस प्रश्न को बराबर टालता रहता है कि यदि हमने किसी ईमानदार को चुना है, और यदि वह चुन लिए जाने के बाद भ्रष्ट हो जाता है, तो हम इस परिस्थिति से कैसे निपटेंगे।

    कुल मिलाकर संघ का शीर्ष नेतृत्व अपने कार्यकर्ताओ को देश की सभी समस्याओ का इलाज "मजबूत राष्ट्रीय और नैतिक चरित्र" में खोजने की प्रेरणा देता है, तथा साथ ही उनके दिमाग में इन तर्कों को भी आरोपित करता रहता है कि वोट वापसी कानूनो से देश में अस्थिरता आएगी !!!
  • राजनैतिक अंधशास्त्र, ( जिसे गलती से राजनीति विज्ञान के नाम से भी जाना जाता है ) के 'पेड विशेषज्ञ' भी भारत में वोट वापसी कानूनो के बारे में चर्चा करने के खिलाफ है। लागू करने की बात तो भूल ही जाइए !!! असल में वे वोट वापसी कानूनो के इतने मुखर विरोधी है कि उन्होंने राजनैतिक अंधशास्त्र की पुस्तको में इस शब्द का जिक्र तक करने से इंकार कर दिया है। वे अपने व्याख्यानों, स्तम्भो और पुस्तको में इस बात का कोई जिक्र ही नहीं करना चाहते कि अमेरिका में जिला जज, पुलिस प्रमुख, जिला शिक्षा अधिकारी आदि पदो पर वोट वापसी प्रक्रियाएं लागू है। वे इस बात को भारत की जनता से छुपाते आ रहे है, क्योंकि उन्हें धनिक वर्ग द्वारा इस जानकारी को छुपाने के लिए पैसा दिया जाता है।
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1.3. मल्टी-इलेक्शन
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भारत की शासन व्यवस्था में सिर्फ ये व्यक्ति ही जनता द्वारा चुन कर आते है -
  1. लोकसभा सांसद,
  2. राज्यों के विधायक,
  3. नगरो के पार्षद/ जिला, तहसील एव गाँव में पंचायत सदस्य।
प्रधानमन्त्री , मुख्यमंत्री और सभापति का चुनाव सांसदों , विधायको और पार्षदो द्वारा किया जाता है, न कि मतदाताओ द्वारा। और सभी विभागीय अधिकारी जैसे पुलिस प्रमुख, जज तथा शिक्षा अधिकारी आदि लिखित परीक्षा के माध्यम से नियुक्त होते है, और पश्चात शीर्ष अधिकारियों और मंत्रियो द्वारा प्रोन्नत किये जाते है।
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अमेरिका में निम्नांकित अधिकारी सीधे जनता द्वारा चुनकर आते है :
  1. राष्ट्रपति, उप राष्ट्रपति या प्रधानमन्त्री, उप प्रधानमन्त्री
  2. सीनेटर या राजयसभा सांसद (संघीय शासन में और कोई पदाधिकारी चुन कर नहीं आते )
  3. प्रतिनिधि या लोकसभा सांसद
  4. गवर्नर , वॉइस गवर्नर या मुख्यमंत्री एवं उप मुख्यमंत्री
  5. राज्यों के विधायक , विधानसभाओ के सदस्य
  6. राज्य लोक अभियोजक
  7. एक से तीन तक महत्त्वपूर्ण मंत्री , जैसे कंसास में कृषि मंत्री
  8. राज्य सुप्रीम कोर्ट के न्यायधीश या हमारे राज्यों के मुख्य न्यायधीश (अलग अलग राज्यों के अनुसार अलग प्रक्रियाएं मौजूद है। जैसे कुछ राज्यों में जज चुनकर नहीं आते )
  9. जिला पुलिस प्रमुख
  10. जिला जज
  11. जिला लोक अभियोजक
  12. जिला शिक्षा अधिकारी
  13. सभापति , मेयर
  14. जिला काउंसलर (अलग अलग जिलो में अलग अलग व्यवस्था)
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ज्यादा पदो पर व्यक्तियों के चुन कर आने से उन अधिकारियों की शक्ति में कमी आती है जो नागरिको के खिलाफ कार्य करते है, तथा यह व्यवस्था ज्यादातर अधिकारियों को अन्य अधिकारियों से स्वतंत्र बनाकर मतदाताओ के प्रति सीधे जवाबदेह बनाती है।
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कृपया इस बात को विशेष रूप से नोट करें कि — मल्टी इलेक्शन प्रणाली सिर्फ तब ही प्रभावी ढंग से कार्य करती है जब प्रशासन में वोट वापसीएव ज्यूरी सिस्टम लागू हो। वोट वापसी के अभाव में चुनाव एक फ्रोड व्यवस्था है, और इससे प्रशासन में कोई बदलाव नहीं आता।
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भारत में प्रधानमन्त्री का चुनाव सांसद, मुख्यमंत्री का चुनाव विधायक और सभापति / मेयर का चुनाव पार्षद करते है। नागरिक प्रधानमन्त्री के लिए अपने पसंद का उम्मीदवार चुनना चाहते है। और 'प्रधानमंत्री को कौन चुनेगा' एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न है। कई मतदाता तय करते है कि X को प्रधानमंत्री बनना चाहिए, अत: स्वत्: ही वे मतदाता X से सम्बंधित सांसद को चुनने के लिए बाध्य है।
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इस प्रकार व्यवहारिक रूप से भारतीय मतदाता सिर्फ तीन व्यक्तियों को ही चुन रहे है -
  1. प्रधानमंत्री
  2. मुख्यमंत्री एवं
  3. सभापति।
शेष में से ज्यादातर सांसद, विधायक आदि इन तीन चेहरों की लोकप्रियता की लहर पर सवार होकर चुने जा रहे है !!
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इससे क्या फर्क आता है ?
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जब सिर्फ कुछ व्यक्ति चुनकर आते है तो बड़ी कम्पनियों के मालिक मुट्ठी भर चुने हुए लोगो से गठजोड़ बनाकर या पेड मिडिया द्वारा दबाव बनवाकर ऐसे कानूनो को लागू करवाने में सफल हो जाते है जिससे छोटी इकाइयाँ दम तोड़ देती है। इससे बड़ी कम्पनियो के एकाधिकार में वृद्धि होती है और छोटी इकाइयों के बाजार से बाहर हो जाने के कारण अर्थव्यवस्था में मुक्त प्रतिस्पर्धा का ह्रास होता है।
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मेरे विचार में मल्टी-इलेक्शन एक महत्त्वपूर्ण घटक है जिसके कारण अमेरिका के बाजार में ज्यादा स्वस्थ और मुक्त प्रतिस्पर्धा है। मल्टी इलेक्शन बड़ी कम्पनियो के लिए छोटी कम्पनियो को नुक्सान पहुंचाने वाले क़ानून बनवाना बेहद मुश्किल बना देता है। जबकि भारत में बड़ी कंपनिया गठजोड़ बनाकर आसानी से छोटी कम्पनियो को क्षति पहुंचाने वाले कानूनो को लागू करवा पाती है, जिससे छोटी कम्पनियो का टिके रहना मुश्किल हो जाता है। भारत में लागू जीएसटी, एक्साइज आदि कर प्रणालिया इसके उदाहरण है।
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ब्रिटेन में सिर्फ सांसद और सिटी काउंसलर ही चुनकर आते थे। लेकिन 1840 में ब्रिटेन ने 'एजुकेशन बोर्ड मेम्बर्स' के सदस्यों के चुनकर आने की व्यवस्था लागू की। लेकिन भारत के राजनैतिक अंधशास्त्र के विशेषज्ञों ने भारत के छात्रों को यह जानकारी कभी नहीं दी। एजुकेशन बोर्ड के चुनकर आने और शिक्षा विभाग पर ज्यूरी सिस्टम होने से ब्रिटेन की शिक्षा व्यवस्था में नाटकीय रूप से सकारात्मक बदलाव आये।
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इसलिए मेरे विचार में मल्टी इलेक्शन एक महत्त्वपूर्ण कारण है जिसकी वजह से अमेरिका भारत से मीलों आगे निकल गया है।
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तो मल्टी-इलेक्शन के बारे में सोनिया-मोदी-केजरीवाल-भागवत और राजनैतिक अंधशास्त्र के विशेषज्ञ क्या कहते है ?
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  • सोमोके और कांग्रेस-बीजेपी-आम आदमी पार्टी ने हमेशा से ही मल्टी-इलेक्शन का विरोध किया है।
  • आरएसएस के शीर्ष नेतृत्व ने हमेशा अपने मझौले स्तर के प्रचारको को अमेरिका की मल्टी इलेक्शन प्रक्रियाएं के बारे में स्वयंसेवको को जानकारी न देने के निर्देश दिए।
  • राजनैतिक अंध शास्त्र ( जिसे गलती से राजनीति विज्ञान के नाम से भी जाना जाता है ) के पेड विशेषज्ञ हमेशा से इस बात पर जोर देते है कि अमेरिका के भारत से आगे निकल जाने में मल्टी-इलेक्शन की कोई भूमिका नहीं है। इसलिए उन्होंने उनके द्वारा लिखी गयी पाठ्य पुस्तको में से यह जानकारी हटा दी कि अमेरिका में मल्टी-इलेक्शन व्यवस्था है। फलस्वरूप भारत के बहुत कम छात्रों को यह जानकारी है। इन विशेषज्ञों ने पाठ्य-पुस्तको में से यह तथ्य भी हटा दिए कि अमेरिका में जज, शिक्षा अधिकारी तथा पुलिस प्रमुख चुनकर आते है। असल में धनिक वर्गो द्वारा इन विशेषज्ञों को पैसा दिया जाता है, ताकि ये लोग अपनी पाठ्य-पुस्तको में अमेरिका की शासन व्यवस्था की जानकारी न दे।
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1.4. जनमत संग्रह क़ानून प्रक्रियाएं
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कई यूरोपीय देशो में जनमत संग्रह प्रक्रियाएं है, जिनका उपयोग नागरिक उन बुरे कानूनो को हटाने में करते है, सांसद जिनका समर्थन कर रहे होते है, और उन अच्छे कानूनो को लागू करवाते है, सांसद जिनका विरोध करते है। इसके अलावा जनमत संग्रह प्रक्रिया एक अच्छी वोट वापसी प्रक्रिया की तरह से भी कार्य करती है। जनमत संग्रह प्रक्रिया यह भी सुनिश्चित करती है कि सांसद धनिक वर्ग को खुश करने के लिए ऐसे क़ानून न बना सके जो पूरी तरह से धनिकों को लाभ और जनसाधारण को नुकसान पहुंचाते है।
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अमेरिका के संघीय शासन में जनमत संग्रह प्रक्रियाएं न होने से ही केंद्रीय शासन नियंत्रण से बाहर हो गया है, अत: नतीजे के रूप में बैंक घोटाले, दवाइयाँ और नशे के कारोबार के संघर्ष के रूप में लूटमार आम तौर पर देखने को मिलती है। जबकि जिला और राज्य स्तर पर जनमत संग्रह प्रक्रियाएं होने से राज्यों और जिलो के शासन में अपेक्षकृत बेहद कम भ्रष्टाचार रहा है।
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ज्यूरी सिस्टम, वोट वापसी और मल्टी-इलेक्शन प्रणालियों को लागू करने और इन्हे बनाये रखने के लिए जनमत संग्रह प्रक्रियाएं आवश्यक है। जनमत संग्रह प्रक्रियाओ के अभाव में विदेशी धनिकों के लिए सांसदों को घूस देकर ज्यूरी सिस्टम, वोट वापसी और मल्टी-इलेक्शन आदि क़ानून प्रक्रियाओ को कमजोर करना आसान हो जाता है।
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जनमत संग्रह प्रक्रियाओं के लिए मैंने टीसीपी नामक क़ानून का प्रस्ताव किया है। मेरे विचार में टीसीपी की प्रस्तावित प्रक्रिया अमेरिका के जिला तथा राज्यों में प्रयोग की जाने वाली जनमत संग्रह प्रक्रियाओ से कम खर्चीली और ज्यादा बेहतर है। अमेरिका में प्रयुक्त जनमत संग्रह प्रक्रियाओ से टीसीपी इस मायने में बेहतर है कि, टीसीपी में नागरिको के अनुमोदन को उनके मतदाता पहचान संख्या के साथ पारदर्शी तरीके से दर्ज तथा प्रकाशित किया जाता है। इससे देश का कोई भी नागरिक अनुमोदनों की प्रमाणिकता की जांच कर सकता है।
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तो जनमत संग्रह प्रक्रिया के बारे में सोमोके, संघ का शीर्ष नेतृत्व एवं राजनैतिक अंध शास्त्र के पेड विशेषज्ञ क्या कहते है ?
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  • सोमोके में से केजरीवाल जी को छोड़कर बाकि दोनों जनमत संग्रह प्रक्रियाओं का विरोध करते है, लेकिन ट्रिपल श्री अरविन्द केजरीवाल जी सिर्फ उन विषयो पर जनमत संग्रह करवाने का समर्थन करते है जिन विषयो पर जनमत संग्रह करवाने की उनकी इच्छा है !!!

    उदाहरण के लिए श्री केजरीवाल जी इस विषय पर जनमत संग्रह करवाने का समर्थन करते है कि — क्या दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा दिया जाना चाहिए ? , लेकिन अयोध्या में राम मंदिर निर्माण के लिए देश व्यापी जनमत संग्रह का वे विरोध करते है !!!

    यह मौका परस्ती और दोगला पंथी के श्रेष्ठ मिश्रण की एक विलक्षण मिसाल है। मेरा मानना है कि, जनमत संग्रह में सभी प्रकार के विषयो का समावेश होना चाहिए तथा इसका स्पष्ट निर्धारण होना चाहिए कि कितने प्रतिशत नागरिको ने अमुक प्रस्ताव को समर्थन दिया, ताकि 'प्रत्येक' प्रस्ताव को बहुमत की कसौटी पर परखा जा सके। टीसीपी में इन सभी प्रक्रियाओ का समावेश है।
  • आरएसएस का शीर्ष नेतृत्व सदा से ही जनमत संग्रह प्रक्रियाओं का विरोधी रहा है। हद तो यह कि कश्मीर का उत्तराखंड में विलय, राम जन्मभूमि देवालय और समान नागरिक संहिता जैसे मुद्दो पर भी आरएसएस ने हमेशा देश व्यापी जनमत संग्रह करवाने का विरोध किया। आरएसएस का शीर्ष नेतृत्व "टू चाइल्ड पॉलिसी" पर भी देश व्यापी जनमत संग्रह करवाने का विरोध कर रहा है।

    जनमत संग्रह न करवाने के लिए आरएसएस के शीर्ष नेतृत्व का बहाना है — हमारा मुख्य लक्ष्य भारतीयों के राष्ट्रीय-नैतिक चरित्र का विकास करने, उन्हें जागरूक करने और भारतीयों में एकता स्थापित करना है, न कि उनके लिए जनमत संग्रह की प्रक्रियाएं उपलब्ध कराना' !!
    तो फिर भारत में ऐसे क़ानून कैसे लागू होंगे जो राष्ट्र को मजबूत बनाते है, लेकिन सांसद उन कानूनो को गैजेट में प्रकाशित करने का विरोध कर रहे है ?

    आरएसएस नेतृत्व का जवाब है कि, हम सैकड़ो की संख्या में ऐसे सांसदों का उत्पादन करेंगे जिनकी फितरत राष्ट्रीय और नैतिक चरित्र से लबरेज हो। तब ये सांसद देश को मजबूत बनाने वाले कानून बनाएंगे।

    इस विषय में आरएसएस नेतृत्व की ढुलमुल नीति को साफ़ तौर पर देखा जा सकता है। यदि आरएसएस नेतृव वास्तव में कानूनी ड्राफ्ट्स आधारित मांग का समर्थन नहीं करता है तो 2011 में आरएसएस के प्रवक्ता राम माधव किस आधार पर जनलोकपाल के कानूनी ड्राफ्ट के समर्थन में मुहीम चला रहे थे ?

    असल में आरएसएस नेतृत्व सिर्फ तब कानूनी ड्राफ्ट का समर्थन करता है, जब इससे उन्हें फायदा हो। वरना उनके बारहमासी एजेंडे के अनुसार कानूनी ड्राफ्ट्स की चर्चा करना महत्त्वहीन है, और सभी को 'राष्ट्रीय और नैतिक चरित्र' का विकास करने में ही अपनी शक्ति लगानी चाहिए। इसीलिए आरएसएस टीसीपी जैसे जनमत संग्रह के क़ानून ड्राफ्ट्स की चर्चा से परहेज बरतता है, लेकिन जनलोकपाल की बात आते ही आरएसएस नेतृत्व के लिए अचानक से कानूनी ड्राफ्ट महत्त्वपूर्ण हो जाते है और वे अपने स्वयंसेवको से उनका समर्थन करने को कहते है।
  • राजनैतिक अंध शास्त्र ( जिसे गलती से राजनीति विज्ञान के नाम से भी जाना जाता है ) के पेशे में कार्यरत पेड विशेषज्ञ भारत में जनमत संग्रह प्रक्रियाओ के धुर विरोधी है। इसी कारण इन (कु) बुद्धिजीवियों ने कभी भी जनमत संग्रह प्रक्रियाओ के लिए कोई कानूनी ड्राफ्ट प्रस्तावित नहीं किया है। उनकी रुचि सिर्फ डायलॉग मारने में रहती है, और आप उनके समाधान विहीन डायलॉग अखबारों के चिथड़ो में टनो के हिसाब से देख सकते है।
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1.5. जमीन के क़ानून एवं कर प्रणाली
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देश का तकनीकी विकास छोटी एवं मझौली निर्माण इकाइयों पर निर्भर करता है और निर्माण इकाईयो के विकास को अदालतों के अलावा 2 चीजें सबसे ज्यादा प्रभावित करती है
  1. कर प्रणाली
  2. जमीनों के क़ानून
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कर प्रणाली : भारत में पहले सेल्स टेक्स, एक्साइज एवं वैट होते थे जो कि अप्रत्यक्ष एवं प्रतिगामी कर थे, और अब भारत में जीएसटी जैसा कर लागू किया गया है जो कि विशेष रूप से प्रतिगामी कर है। प्रतिगामी कर छोटी इकाइयों को गलत वजह से नुकसान एवं बड़ी कम्पनियों को अतिरिक्त फायदा देता है। इस वजह से छोटी इकाईयो की लागत बढ़ने लगती है, और वे बाजार में टिक नहीं पाती। जब छोटी-मझौली इकाइयां घाटा खाकर बंद हो जाती है तो यह धंधा बड़ी कम्पनियों के हिस्से में चला जाता है। और यदि किसी देश में छोटे कारखानों का आधार नहीं है तो वहां पर तकनिकी विकास एवं अविष्कार के अवसर ख़त्म हो जाते है। इस तरह प्रतिगामी कर प्रणाली रोजागर एवं कारखानों को सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचाती है।
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अब अमेरिका जैसे देश पर विचार कीजिये जहाँ पर जीएसटी जैसा प्रतिगामी कर नहीं है। प्रतिगामी कर नहीं होने की वजह से वहां पर छोटी इकाइयां टिकी रहती है, और उनके तकनिकी विकास के अवसर बढ़ जाते है।
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जमीनों के क़ानून : भारत में अकार्यशील भूमि पर कोई टेक्स नहीं लगाया गया है। अकार्यशील भूमि पर टेक्स नहीं होने के कारण धनिक वर्ग लगातार अपना निवेश भूमि में करता है, और इसे होल्ड करके अकार्यशील बना देता है। इस तरह मार्केट में जमीनों की सप्लाई कम हो जाती है, और जमीन महंगी हो जाती है। देश की पूरी अर्थव्यवस्था जमीन की कीमतों पर चलती है, अत: जिस देश में जमीन महंगी हो जाती है, फिर देश को बर्बाद होने से कोई बचा नहीं सकता। भारत में आप इस स्थिति को देख सकते है।
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अमेरिका जैसे देश में पहला फायदा यह है कि जीएसटी नहीं है, और दूसरा लाभ यह है कि वहां पर जमीन पर टेक्स है। वेल्थ टेक्स होने के कारण जमीन की कीमतें नियंत्रित रहती है, और नागरिको के लिए निर्माण इकाइयां लगाना आसान हो जाता है।
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मेरा प्रस्ताव है कि, हमें जीएसटी रद्द करके अकार्यशील भूमि को कर योग्य बनाने के लिए रिक्त भूमि कर ले आना चाहिए। मेरे द्वारा प्रस्तावित रिक्त भूमि कर का ड्राफ्ट जूरी कोर्ट मंच पर देखा जा सकता है।
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सोमोके एवं आरएसएस नेतृत्व का कर प्रणाली पर क्या रुख है ?
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  • सोमोके सिर्फ प्रतिगामी करों का समर्थन करते है, और इसीलिए ये सभी जीएसटी के भी समर्थन में है। भारत में जीएसटी लाने की कोशिश सबसे पहले कोंग्रेस ने की थी, और तब बीजेपी इसका विरोध कर रही थी। मोदी साहेब तब जीएसटी के विशेष रूप से विरोध में थे !! जब मोदी साहेब पीएम बने तो उन्होंने जीएसटी लागू कर दिया, और कोंग्रेस जीएसटी का जबानी विरोध करने लगी !! केजरीवाल जी भी सिर्फ प्रतिगामी करों का ही समर्थन करते है, और वे भी देश में जीएसटी चाहते है।
  • आरएसएस नेतृत्व अकार्यशील भूमि पर कर लगाए जाने के भी खिलाफ है। यहाँ तक कि आजादी के बाद जब भारत में लेंड रिफोर्म्स के लिए आन्दोलन हुए थे तो आरएसएस ने खुद को इससे अलग रखा, और जमीदारों का पक्ष लिया था। असल में भारत के राजे महाराजे, मंदिरों के नियंत्रक – जिनके स्वामित्व में आज भी अकार्यशील भूमि की अच्छी खासी मात्रा है – शुरू से आरएसएस के दान दाता रहे है। अत: आरएसएस का शीर्ष नेतृत्व अकार्यशील भूमि पर टेक्स लगाये जाने के खिलाफ है !!
  • राजनैतिक अंध शास्त्र ( जिसे गलती से राजनीति विज्ञान के नाम से भी जाना जाता है ) के पेड विशेषज्ञों का इस पर स्टेंड पता करने के लिए एक काम कीजिये – आप भारत की सभी पाठ्य पुस्तको एवं आर्थिक विशेषज्ञों की सभी किताबें इकठ्ठा कीजिये, और उसमें "जमीन की कीमतें" लफ्ज की तलाश कीजिये !! आप टनों किताबें भी खंगालेंगे तो आपको जमीन की कीमतों का जिक्र तक नहीं मिलेगा !! उनके हिसाब से जमीन की कीमतों का अर्थव्यवस्था से कोई लेना देना ही नहीं होता है !! उनका शिद्दत से यह मानना है कि फैक्ट्री लगाने के लिए जमीन की कोई जरूरत नही होती है, और फैक्ट्रियां हवा में भी लगाई जा सकती है !!
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(2) क्यों भारत और अमेरिका-ब्रिटेन के बीच शक्ति अनुपात दिन प्रतिदित बदतर से बदतरीन होता जा रहा है ?
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इस प्रश्न के बारे में मेरा जवाब वही है जो पहले (1) सवाल का जवाब है। उनके पास इन 5 कानूनी ड्राफ्ट्स का समूह है, जबकि भारत के कार्यकर्ता अपने सांसदों पर इन कानूनो को लागू करने के लिए दबाव नहीं बना रहे है। इसलिए भारत और अमेरिका-ब्रिटेन के बीच यह खाई और भी चौड़ी होती जा रही है।
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बिगड़ते शक्ति अनुपात के बारे में सोमोके के समर्थको , संघ नेतृत्व एवं पेड विशेषज्ञों का क्या कहना है ?
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  • सोनिया जी एवं उनके समर्थको का मानना है कि भारत के डूबने का मुख्य कारक साम्प्रदायिकता है। विशेष रूप से हिन्दू साम्प्रदायिकता !!!

    मोदी साहेब के समर्थको का मानना है कि भारत अमेरिका से इसीलिए पिछड़ गया क्योंकि मोदी साहेब प्रधानमन्त्री नहीं थे। अत: उनके प्रधानमन्त्री बनने के साथ ही कुछ वर्षो में भारत अमेरिका के बराबर शक्तिशाली हो जाएगा !!! मोदी साहेब का मानना है कि इसके लिए मुख्य रूप से जिम्मेदार नेहरु थे। किन्तु सच्चाई यह है कि मोदी साहेब के पीएम बनने के बाद भारत और अमेरिका का शक्ति अनुपात और भी बदतर हो गया है !! दुसरे शब्दों में, मोदी साहेब ने अमेरिका पर भारत की निर्भरता में और भी इजाफा कर दिया है।

    श्री अरविंद केजरीवाल के हिसाब से इसका मूल कारण जनलोकपाल का अभाव है।
  • आरएसएस का शीर्ष नेतृत्व इसके लिए घटिया राष्ट्रीय-नैतिक चरित्र को दोषी मानता है।
  • जबकि राजनीति अंधशास्त्र के विशेषज्ञो के अनुसार कमजोर राजनैतिक संस्कृति इसकी वजह है।
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और भी इसी तरह के अजीब एवं बेतुके कारणों की फेहरिस्त
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आखिर इन महान और ब्रांडेड नेताओं द्वारा इस तरह के बेतुके कारण देने की वजह क्या है ?
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देखिये, ऐसा नहीं है कि ये लोग कम अक्ल है, और उन्हें इन कानूनों के बारे में जानकारी नहीं है। उनके द्वारा दिए जा रहे इन बेतुके कारणों की वजह हितो का टकराव है !! दरअसल, ये नेता अपने आप को शीर्ष पर टिकाए रखने के लिए अमेरिकी-ब्रिटिश धनिकों पर बुरी तरह से निर्भर है। और अमेरिकी-ब्रिटिश धनिक भारत में उपरोक्त क़ानून नहीं चाहते। यदि ये ब्रांडेड नेता अमेरिकी-ब्रिटिश धनिकों के हितो की अवहेलना करेंगे तो इनका राजनैतिक कैरियर डूबने लगेगा। इस वजह से जब इन्हें देश हित एवं स्व हित में किसी को चुनना होता है तो ये स्व हित को चुन लेते है !! बस इतना ही है !!
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(3) इस बिगड़ते शक्ति अनुपात के क्या दुष्परिणाम निकल कर आ सकते है ?
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मेरा जवाब है की, बिगड़ता यह शक्ति अनुपात भारत को फिर से गुलामी की और धकेल सकता है। एक निश्चित और स्थायी गुलामी।
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इस प्रश्न का सोमोके, आरएसएस का शीर्ष नेतृत्व और राजनैतिक अंधशास्त्री क्या जवाब देते है ?
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  • सोनिया-मोदी-केजरीवाल इस प्रश्न की उपेक्षा कर के इसे खारिज कर देते है। उलटे वे अमेरिका को भारत के सच्चे दोस्त की तरह पेश करते है और खुले आम एफडीआई का समर्थन करते है। जबकि वे इस तथ्य से अच्छे से परिचित है कि एफडीआई किसी भी देश की सम्पत्तियो पर कब्ज़ा कर लेने का एक धीमा किन्तु प्रभावी हथियार है।
  • आरएसएस कम से कम अमेरिका और भारत के बीच बिगड़ते शक्ति अनुपात को एक समस्या मानता है।
  • राजनैतिक अंध शास्त्र ( जिसे गलती से राजनीति विज्ञान भी कहा जाता है ) के पेड विशेषज्ञ भारत और अमेरिका के बीच बिगड़ते इस शक्ति संतुलन को समस्या मानने से ही इंकार कर देते है !!!
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(5) भारत और अमेरिका-ब्रिटेन के बीच बिगड़ते इस शक्ति अनुपात को बेहतर बनाने के लिए आम कार्यकर्ता क्या कर सकते है ?
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मेरे हिसाब से सबसे पहले कार्यकर्ताओ को जूरी कोर्ट, वोट वापसी, मल्टी-इलेक्शन, जनमत संग्रह, रिक्त भूमि कर और इसी प्रकार के प्रभावी क़ानून ड्राफ्ट्स का अध्ययन करना चाहिए।
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ड्राफ्ट्स पढ़कर कार्यकर्ताओ को यह तय करना चाहिए कि कौनसे कानूनी ड्राफ्ट्स को भारत के गैजेट में प्रकाशित किया जाना चाहिए। फिर कार्यकर्ताओ को चयनित ड्राफ्ट्स की मांग पीएम से करनी चाहिए। कार्यकर्ताओ को कानूनी ड्राफ्ट्स के बारे में नागरिको को जानकारी देने के लिए समाचार पत्रो में विज्ञापन देने चाहिए तथा अन्य नागरिको से भी आग्रह करना चाहिए कि वे सोशल मीडिया का इस्तेमाल करके नागरिको को इस कानूनों के बारे में सूचित करें।
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अच्छे कानून ड्राफ्ट्स को नागरिको का समर्थन मिलने से सोमोके तथा कांग्रेस-बीजेपी आम आदमी पार्टी आदि के नेताओ पर इन कानूनो को गैजेट में प्रकाशित करने का दबाव बढ़ेगा। इस दबाव के चलते इन कानूनो के भारत के गैजेट में प्रकाशित होने की संभावना बढ़ जायेगी और भारत अमेरिका-ब्रिटेन के मुकाबले बेहतर होने की दिशा में अग्रसर होगा।
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सोमोके, आरएसएस का शीर्ष नेतृत्व और राजनैतिक अंधशास्त्र के विशेषज्ञ कार्यकर्ताओ से इस बारे में क्या करने को कहते है ?
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  • सोमोके का कहना है कि भारत और अमेरिका-ब्रिटेन के बीच बिगड़ते शक्ति अनुपात को सुधारने के लिए कार्यकर्ताओ को सिर्फ नेता भक्ति करनी चाहिए। इतना काफी है। जहां तक कानूनी ड्राफ्ट्स का प्रश्न है, कार्यकर्ताओ को उन सभी कानूनो का विरोध करना चाहिए जिनका अनुमोदन सोमोके ने नहीं किया है।
  • इस शक्ति अनुपात को सुधारने के लिए आरएसएस अपने कार्यकर्ताओ से यह जोर देकर कहता है कि उन्हें इसके लिए नियमित रूप से शाखा आकर व्यायाम करना चाहिए और आरएसएस नेतृत्व द्वारा सुझाये गए सामाजिक कार्यो, जुलुस, नारेबाजी, पथ संचलन, विचार गोष्ठी, चिन्तन शिविर, बाढ़ राहत आदि तक सीमित रहना चाहिए। लेकिन जब चुनाव हो तो कार्यकर्ताओ को नागरिको के बीच अभियान चलाकर उन्हें बीजेपी के खाते में वोट देने के लिए प्रेरित करना चाहिए।

    दो चुनावो के अंतराल में कार्यकर्ताओ को फिर से शाखाओ और सामाजिक कार्यो की शरण में चला जाना चाहिए। आरएसएस नेतृत्व यह भी सुनिश्चित करता है कि कार्यकर्ताओ को न तो अमेरिका-ब्रिटेन में लागू कानूनो का अध्ययन करना चाहिए, न ही भारत में ऐसे कानूनो की मांग करने की गतिविधियाँ करनी चाहिए !!!
  • राजनैतिक अंध शास्त्र ( जिसे गलती से राजनीति विज्ञान के के नाम से भी जाना जाता है ) के पेड विशेषज्ञों का कहना है कि कार्यकर्ताओ को उनके द्वारा लिखी गयी राजनैतिक अंधशास्त्र की पाठ्य-पुस्तको का गहराई से अध्ययन करके विश्लेषण करना चाहिए। और यदि उन्होंने इन पुस्तकों का गहराई से अध्ययन कर लिया है, तो उन्हें अगले चरण में और भी गहराई तक जाना चाहिए !! वे भी कार्यकर्ताओ को कानूनी ड्राफ्ट्स के चक्कर में न पड़ने की सलाह देते है। असल में वे कार्यकताओ को निष्क्रिय बने रहने या तकनिकी शब्दावली में पैरालाइसिस ऑफ़ ऐनालाइसिस के शिकार बने रहने की सलाह देने पर ज्यादा जोर देते है।
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(5) सार
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सोनिया-मोदी-केजरीवाल, आरएसएस का शीर्ष नेतृत्व और राजनैतिक अंधशास्त्र के विशेषज्ञ बहुधा इस प्रश्न की अवहेलना करते है कि अमेरिका-ब्रिटेन भारत से आगे क्यों है ? कारण जो वे बताते है — राजनैतिक संस्कृति में भिन्नता, राष्ट्रीय चरित्र का अभाव, कमजोर नैतिक मूल्य और एकता का अभाव आदि आदि। मेरे हिसाब से ये कारण बकवास है। शुद्ध बकवास, बिना किसी मिलावट के।
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और चूंकि भारत के पिछड़ जाने के उनके द्वारा बताए गए कारण बकवास है, अत: भारत अमेरिका से आगे कैसे निकल सकता है, यह प्रश्न उनकी तरफ से शुरुआत में ही खारिज हो जाता है !!
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असल में ये सभी जान बूझकर इस गंभीर प्रश्न से मुँह मोड़ रहे है कि 'भारत और अमेरिका-ब्रिटेन के बीच बिगड़ते शक्ति अनुपात के हमें क्या दुष्परिणाम भुगतने पड़ सकते है।
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क्या भारत कभी अमेरिका से आगे निकल सकता है ?
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मेरा मानना है, कि अमेरिका-ब्रिटेन भारत से आगे है, क्योंकि उनके पास वोट वापसी, ज्यूरी सिस्टम, मल्टी-इलेक्शन, जनमत संग्रह और प्रोग्रेसिव कर प्रणाली के लिए बेहतर कानूनी प्रक्रियाएं है।
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दुसरे शब्दों में, यदि भारत के कार्यकर्ता उपरोक्त 5 क़ानून प्रक्रियाओं को भारत में लागू करवाने में सफल हो जाते है तो भारत कम से कम अमेरिका के बराबर आ सकता है। भारत में उपरोक्त प्रक्रियाओ को लागू करवाने के लिए हमें गेजेट में जो इबारत छपवाने की जरूरत है मैंने उनके क़ानून ड्राफ्ट प्रस्तावित किये है।
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मेरे विचार में, कार्यकर्ताओ को पीएम को चिट्ठी लिखकर, सोशल मीडिया केम्पेन चलाकर, चुनावों में हिस्सा लेकर भारत के सांसदों पर इन कानूनो को गैजेट में प्रकाशित करने का दबाव बनाना चाहिए। इससे उन कार्यकर्ताओ की शक्ति में कमी आएगी जो उन नेताओ का समर्थन कर रहे है जो नेता भारत में वोट वापसी, ज्यूरी सिस्टम, मल्टी-इलेक्शन, जनमत संग्रह कानूनो को लागू करने का विरोध कर रहे है। ऐसा होने से नेताओ का जनाधार खिसकने लगेगा, और सोनिया जी , मोदी साहेब और श्री केजरीवाल इन कानूनो को गैजेट में प्रकाशित करने के लिए बाध्य होंगे।

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