मेरे घर के पास ही बस स्टैंड है. उधर एक चाट-पकौड़ी और गोलगप्पे बेचने वाला है. हमेशा उसके इधर भीड़ लगी होती है और मैं अंदाज़ करता हूँ की उसकी कमाई रोज़ाना कम से कम 5 से 7 हज़ार रुपये होती होगी. 4–5 स्टाफ हैं उसके इधर, यानी 4–5 परिवार और चल रहा है उसके दूकान से.
खैर... आते हैं प्रश्न के सन्दर्भ में. आज सुबह शर्ट पहनने वक़्त ऊपर का बटन गलती से दुसरे वाले के जगह लग गया, यानी पूरा शर्ट ही गड़बड़ पहना गया. यही कहानी है हमारे पिछड़ेपन का. हम अक्सर शर्ट के पहले बटन को ही ध्यान में नहीं रख पाते हैं और पूरा शर्ट ही गड़बड़ पहना जाता है. एक आम भारतीय मध्यमवर्गीय परिवार अक्सर यहीं मार खा जाता है. हमारे इधर एक बच्चा पैदा होता है. हम उसे स्कूल में भेजते हैं ताकि वो पढ़ लिख सके. 10–12वीं कक्षा पास होने तक वो बच्चा 17–18 वर्ष का हो जाता है. उसके बाद उस बच्चे को लगता है की मैंने जीवन की एक उपलब्धि हासिल कर ली है और तब शुरू होता है मनोवैज्ञानिक खेल. वो बच्चा अपने माँ-बाप को प्रेशर देता है की फलां कॉलेज में एम् बी ए करना है या इंजीनियरिंग करनी है या कोई अन्य कॉलेज में डिग्री कोर्स करनी है. माँ-बाप ना चाहते हुए भी ना नहीं कर सकते हैं. जिंदगी भर की जमा पूँजी डाल आते हैं या जमीन बेचकर उस कॉलेज की फीस जमा कर आते हैं यानी 20–25 लाख कम से कम और बच्चे का खर्चा मासिक अलग से. बच्चा 23–24 का होता है तब उसका कहना होता है की अब एक और कोर्स कर लूँगा तब पढ़ाई पूरी होगी. माँ-बाप बेचारे, जमीन बेचकर या घर की कीमती ज्वेलरी बेचकर बच्चे की मुराद पूरी करते हैं.
तब वास्तविक समय आता है जब उस बच्चे के ऊपर प्रेशर होता है एक अच्छी नौकरी का. लेकिन ये क्या???? उसे तो 15–17 हज़ार की नौकरी ही मिलती है. अब वो क्या करे? कुछ दिनों तक झक मार कर 20 हज़ार रुपये की नौकरी कर लेता है वो. कुछ वर्षों में उसकी सैलरी 20 हज़ार से 30 हज़ार हो जाती है. उसके बाद उसका विवाह होता है और जिम्मेदारियां बढ़ जाती है. वह चाह कर भी रिस्क नहीं ले पाता है. यानी उसके जीवन का ट्रैक सिर्फ और सिर्फ एक ही रह जाता है, जिसमे स्टेशन तो कई आते हैं, लेकिन एक भी जंक्शन नहीं आता है. यहाँ पर अगर मुझसे आप पूछेंगे की ऐसा क्यों हुआ तो मेरा जवाब वही होगा की यहाँ पर शर्ट का पहला बटन ही गलत लग गया. यानी हमने उस बच्चे को उस ट्रैक पर जाने में मदद की. उस बच्चे का जीवन तो संकुचित हो कर रह गया.
हम अक्सर कोई फल या प्राकृतिक चीज़ खा रहे होते हैं तो देखते हैं की उसमे बीज होता है. आखिर क्यों? कभी सोचा है? एक सामान्य व्यक्ति यह सोचता है की जब बीज खाने की चीज़ ही नहीं है तो उपरवाले यानी प्रकृति ने उसमे बीज डाले ही क्यों? लेकिन ये सोचने वाली बात है की उस बीज की ही महत्ता है प्रकृति के निरंतर बढ़ते और बदलते रहने के लिए. इस चीज़ को हम कभी गौर नहीं कर पाते हैं.
सृस्टि निर्माण से अभी तक हरेक जीव का उद्गम होता है एक "बीज" के द्वारा. चाहे वो मछली हो, पेड़ हो, मानव हो या कोई भी चीज़ हो. प्रकृति कहती है की तुम उस पेड़, मछली या किसी भी चीज़ का वरन करो लेकिन मैंने तुम्हे वो बीज दिया है तुम्हारे निरंतर बढ़ने और बदलने के लिए. तुम सिर्फ उसका वरन करो, उसको बढ़ाना, बदलना और तुम्हारे अनुरूप उसे कैसे ढालना है, ये मेरे ऊपर छोड़ दो. प्रकृति गुणक करती है. कोई भी प्रकृति प्रदत्त चीज़ का प्रकृति अपने अनुसार विस्तार और बदलाव करती है. एक आम के गुठली से लाखों आम हो सकते हैं. बस इसी मंत्र को पहचानने की जरूरत है. हमें जरूरत है अपने अंदर के उस बीज को पहचानने की.
एक माड़वाड़ी का बच्चा अच्छे कॉलेज, स्कूल में पढ़कर आता है और अपने पुश्तैनी व्यापार को ग्रहण कर लेता है. क्योंकि उसे अपने बीज का ज्ञान है. वह जानता है की पढ़ाई लिखाई, एक बेहतर इंसान बना सकती है लेकिन जरूरी नहीं है की बेहतर धनोपार्जन का जरिया बन ही जाए.
मैं ये नहीं कहता हूँ की सब ऐसे ही हैं. लेकिन ज्यादातर ऐसे ही हैं. वो एम् बी ए किया हुआ बच्चा एक कंपनी भी खोल सकता है, उसमे 3 पार्टनर भी रख सकता है. अगर 1 व्यक्ति 2 लोगों को अपने अंदर काम पर रख सकता है तो उस प्रतिष्ठान में कम से कम 8 व्यक्ति कामगार हो सकते हैं. 1 व्यक्ति अगर 10000 कमा रहा है तो हो सकता है की पूरा प्रतिष्ठान कम से कम 40000 तो जरूर कमायेगा और चार दिमाग मिलकर उसे बढ़ा भी सकते हैं. यानी वो शुरुआत कुछ और तरीके से भी कर सकता था, लेकिन उसने एक साधारण ट्रैक चुना, जिसमे उसकी जिंदगी उसी ट्रैक पर चलती चली जायेगी और वह चाह कर भी कुछ नहीं कर पायेगा. उसने अपने टैलेंट को नहीं पहचाना शायद या उसमे वो टैलेंट ही नहीं था, उसने तो सिर्फ अपने माँ बाप को मूर्ख बनाया.
वो गोलगप्पे वाला अपने टैलेंट को पहचानकर अपने शुरूआती दौर में ही गोलगप्पे की दूकान खोलकर बैठ गया और अपनी गुणवत्ता से इतना चर्चित हो गया की आज वो एक एम् बी ए से ज्यादा कमा रहा है. आज के दौर में अपने देश में नए स्टार्ट-अप्स का जिस मात्रा में होना चाहिए, उस मात्रा में ना होना मेरे उत्तर को और प्रबल करता है.
मुझे तो यही कुछ सामाजिक वजहें लगती हैं, जो आपके प्रश्न को सान्दर्भिक करती हैं.
ये मेरे निजी सोच हैं, हो सकता है की इसमें मैं अपने उत्तर को पूर्ण व्यवहारिकता नहीं दे पाया, इसके लिए आपके सुझावों का इंतजार कमेंट बॉक्स में रहेगा.
धन्यवाद्.
2 Comments
Right
ReplyDeleteJi bhai
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